SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय वक्षस्कार] भगवन् ! उन वृक्षों का आकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! वे वृक्ष कूट-शिखर, प्रेक्षागृह-नाटयगृह, छत्र, स्तूप-चबूतरा, तोरण, गोपुरनगरद्वार, वेदिका---उपवेशन योग्य भूमि, चोप्फाल–बरामदा, अट्टालिका, प्रासाद-शिखरबद्ध देवभवन या राजभवन, हर्म्य-शिखर वजित श्रेष्ठिगृह-हवेलियां, गवाक्ष--झरोखे, वालाग्रपोतिका-- जलमहल तथा वलभीगृह सदृश संस्थान-संस्थित हैं वैसे विविध आकार-प्रकार लिये हुए हैं। इस भरतक्षेत्र में और भी बहुत से ऐसे वृक्ष हैं, जिनके आकार उत्तम, विशिष्ट भवनों जैसे हैं, जो सुखप्रद शीतल छाया युक्त हैं। 31. (1) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहावणाइ वा ? गोयमा ! णो इणठे समझें, रुक्ख-गेहालया णं ते मणुप्रा पण्णत्ता समणाउसो ! [31] (1) भगवन् ! उस समय भरतक्षेत्र में क्या गेह-घर होते हैं ? क्या गेहायतनउपभोग हेतु घरों में आयतन-अापतन या आगमन होता है ? अथवा क्या गेहापण-गृह युक्त प्रापणदुकानें या बाजार होते हैं ? प्रायुष्मन् श्रमण गौतम ! ऐसा नहीं होता / उन मनुष्यों के वृक्ष ही घर होते हैं / (2) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा, (आगराइ वा, णयराइ वा, णिगमाइ वा, रायहाणीमो वा, खेडाइ वा, कब्बडाइ वा, मडंबाइ वा, वोणमुहाइ वा, पट्टणाइ वा, आसमाइ वा, संवाहाइ वा,) संणिवेसाइ वा। गोयमा ! णो इणठे समठे, जहिच्छिअ-कामगामिणो णं ते मणुप्रा पण्णत्ता। (2) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में ग्राम-बाड़ों से घिरी बस्तियाँ या करगम्य-जहाँ राज्य का कर लागू हो, ऐसी बस्तियाँ, (आकर-स्वर्ण, रत्न आदि के उत्पत्ति-स्थान, नगर-जिनके चारों ओर द्वार हों, जहाँ राज्य-कर नहीं लगता हो, ऐसी बड़ी बस्तियाँ, निगम-जहाँ वणिक्वर्ग का व्यापारी वर्ग का प्रभूत निवास हो, वैसी बस्तियाँ, राजधानियाँ, खेट-धूल के परकोट से घिरी हुई या कहीं-कहीं नदियों तथा पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, कर्बट--छोटी प्राचीर से घिरी हुई या चारों ओर पर्वतों से घिरी हुई बस्तियाँ, मडम्ब-जिनके ढाई कोस इर्द-गिर्द कोई गाँव न हों, ऐसी बस्तियाँ, द्रोणमुख समुद्रतट से सटी हुई वस्तियाँ, पत्तन-जल-स्थल-मार्ग युक्त बस्तियाँ, पाश्रम---तापसों के आश्रम या लोगों की ऐसी बस्तियाँ, जहाँ पहले तापस रहते रहे हों, सम्बाध–पहाड़ों की चोटियों पर अवस्थित बस्तियाँ या यात्रार्थ समागत बहुत से लोगों के ठहरने के स्थान तथा सन्निवेश--सार्थ-व्यापारार्थ यात्राशील सार्थवाह एवं उनके सहवर्ती लोगों के ठहरने के स्थान होते हैं ? गौतम ! ऐसा नहीं होता / वे मनुष्य स्वभावतः यथेच्छ-विचरणशील-स्वेच्छानुरूप विविध स्थानों में गमनशील होते हैं। (3) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे असीइ वा, मसीइ वा, किसीइ वा, वणिएत्ति वा, पणिएत्ति वा, वाणिज्जेइ वा ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy