________________ चतुर्थ वक्षस्कार [211 भगवन् ! गन्धमादन वक्षस्कारपर्वत का यह नाम किस प्रकार पड़ा ? गौतम ! पीसे हुए, कूटे हुए, बिखेरे हुए, (एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाले हुए, उंडेले हुए) कोष्ठ (एवं तगर) से निकलने वाली सुगन्ध के सदृश उत्तम, मनोज्ञ, (मनोरम) सुगन्ध गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत से निकलती रहती है। भगवन् ! क्या वह सुगन्ध ठीक वैसी है ? गोतम ! तत्वत: वैसी नहीं है। गन्धमादन से जो सुगन्ध निकलती है, वह उससे इष्टतरअधिक इष्ट (अधिक कान्त, अधिक प्रिय, अधिक मनोज्ञ, अधिक मनस्तुष्टिकर एवं अधिक मनोरम) है। वहाँ गन्धमादन नामक परम ऋद्धिशाली देव निवास करता है। इसलिए वह गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत कहा जाता है / अथवा उसका यह नाम शाश्वत है। उत्तर कुरु 104. कहि णं भन्ते ! महाविदेहे वासे उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता ? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं, गोलवन्तस्स वासहरपव्वयस्स दक्खिणेणं, गन्धमायणस्स वश्वारपव्वयस्स पुरस्थिमेणं, मालवन्तस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चस्थिमेणं एत्थ णं उत्तरकुरा णामं कुरा पण्णत्ता / पाईणपडीणायया, उदीणदाहिणवित्थिण्णा, अद्धचंदसंठाणसंठिया / इक्कारस जोमणसहस्साई अट्ठ य बायाले जोअणसए दोग्णि अ एगूणवीसहभाए जोअणस्स विक्खम्भेणंति / .. तोसे जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया, दुहा वखारपवयं पुट्ठा, तंजहा-पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा एवं पच्चथिमिल्लाए (कोडीए) पच्चस्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवणं जोअणसहस्साई प्रायामेणंति / तीसे णं धणु दाहिणणं सर्दुि जोअणसहस्साई चत्तारि प्र अट्ठारसे जोअणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवणं / उत्तरकुराए णं भन्ते ! कुराए केरिसए आयारभावपडोबारे पण्णत्ते ? ... गोयमा! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, एवं पुत्ववण्णिा जा चेव सुसमसुसमावत्तव्वया सा चेव अव्वा जाव 1. पउमगंधा, 2. मिअगंधा, 3. अममा, 4. सहा, 5. तेतली, 6. सणिचारी। [104] भगवन् ! महाविदेह क्षेत्र में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! मन्दर पर्वत के उत्तर में, नीलवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण में, गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में तथा माल्यवान् वक्षस्कारपर्वत के पश्चिम में उत्तरकुरु नामक क्षेत्र बतलाया गया है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है, उत्तर-दक्षिण चौड़ा है, अर्ध चन्द्र के आकार में विद्यमान है / वह 11842 प योजन चौड़ा है। .... उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है। वह दो तरफ से वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करती है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी वक्षस्कारपर्वत का स्पर्श करती है, पश्चिमी किनारे से पश्चिमी वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श करती है। वह 53000 योजन लम्बी है। दक्षिण में उसके धनुपृष्ठ की परिधि 60418 र योजन है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org