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________________ सप्तम वक्षस्कार [329 भवइ, दोहिं एगसट्ठिभागमुत्तेहि अहिए। से पविसमाणे सूरिए दोच्चंसि अहोरत्तंसि बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ।। जया णं भंते ! सरिए बाहिरतच्चं मंडलं उवसंकमित्ता चारं घरइ तया णं केमहालए दिवसे भवइ केमहालिया राई भवइ ? गोयमा ! तया णं प्रद्वारसमुहुत्ता राई भवइ चहिं एगसट्ठिभागमुहुर्तेहिं ऊणा, बुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ चाहिं एगसट्ठिभागमुहत्तेहि अहिए इति / एवं खलु एएणं उवाएणं पविसमाणे सूरिए तयाणंतरामो मंडलानो तयाणंतरं मंडलं संकममाणे संकममाणे दो दो एगसट्ठिभागमुहत्तेहि एगमेगे मंडले रयणिखेत्तस्स निवुद्धमाणे 2 दिवसखेत्तस्स अभियुद्धमाणे 2 सम्वन्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ ति। जया गं भंते ! सरिए सव्ववाहिरामो मंडलामो सम्वाभंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं सव्वबाहिरं मंडलं पणिहाय एगेणं तेसीएणं राइंदिप्रसएणं तिण्णि छावठे एगसटिभागमुहत्तसए रयणिखेत्तस्स णिवुद्धत्ता दिवसखेत्तस्स अभिवद्धत्ता चारं चरइ / एस णं दोच्चे छम्मासे / एस णं दुच्चस्स छम्मास्स पज्जवसाणे / एस णं प्राइच्चे संवच्छरे / एस णं प्राइच्चस्स संवच्छरस्स पज्जवसाणे पण्णते। [167] भगवन् ! जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तबउस समय दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! उत्तमावस्थाप्राप्त, उत्कृष्ट-अधिक से अधिक 18 मुहूर्त का दिन होता है, जघन्यकम से कम 12 मुहूर्त की रात होती है / वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य नये संवत्सर में प्रथम अहोरात्र में दूसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य दूसरे आभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब ये मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त का दिन होता है, से मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त की रात होती है। वहाँ से निष्क्रमण करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में (दूसरे प्राभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर) गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त का दिन होता है, मुहूतांश अधिक 12 मुहूर्त की रात होती है। इस क्रम से निष्क्रमण करता हुआ, पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ सूर्य प्रत्येक मण्डल में दिवस-क्षेत्र-दिवस-परिमाण को मुहूर्ताश कम करता हुआ तथा रात्रि-परिमाण को रे मुहूर्ताश बढ़ाता हुआ सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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