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________________ 330] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र जब सूर्य सर्वाभ्यन्तर मण्डल से सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब सर्वाभ्यन्तर मण्डल का परित्याग कर 183 अहोरात्र में दिवस-क्षेत्र में 366 संख्या-परिमित / मुहूर्तांश कम कर तथा रात्रि-क्षेत्र में इतने ही मुहूर्तांश बढ़ाकर गति करता है / भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब रात उत्तमावस्थाप्राप्त, उत्कृष्ट-अधिक के अधिक 18 मुहर्त की होती है, दिन जघन्य-कम से कम 12 मुहूर्त का होता है। ये प्रथम छः मास हैं / यह प्रथम छः मास का पर्यवसान है-समापन है। वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे छः मास के प्रथम अहोरात्र में दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। __ भगवन् ! जब सूर्य दूसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्तांश कम 18 मुहूर्त की रात होती है, 12 मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त का दिन होता है / वहाँ से प्रवेश करता हुआ सूर्य दूसरे अहोरात्र में तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है। __भगवन् ! जब सूर्य तीसरे बाह्य मण्डल को उपसंक्रान्त कर गति करता है, तब दिन कितना बड़ा होता है, रात कितनी बड़ी होती है ? गौतम ! तब मुहूर्ताश कम 18 मुहूर्त की रात होती है, हमें मुहूर्ताश अधिक 12 मुहूर्त का दिन होता है। इस प्रकार पूर्वोक्त क्रम से प्रवेश करता हुआ सूर्य पूर्व मण्डल से उत्तर मण्डल का संक्रमण करता हुआ रात्रि-क्षेत्र में एक-एक मण्डल में है मुहूर्ताश कम करता हुआ तथा दिवस-क्षेत्र में मुहूर्ताश बढ़ाता हुआ सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है। भगवन् ! जब सूर्य सर्वबाह्य मण्डल से सर्वाभ्यन्तर मण्डल का उपसंक्रमण कर गति करता है, तब वह सर्वबाह्य मण्डल का परित्याग कर 183 अहोरात्र में रात्रि-क्षेत्र में 366 संख्या-परिमित मुहूर्ताश कम कर तथा दिवस-क्षेत्र में उतने ही मुहूर्ताश अधिक कर गति करता है। ये द्वितीय छह मास हैं / यह द्वितीय छह मास का पर्यवसान है। यह आदित्य-संवत्सर है। यह आदित्य-संवत्सर का पर्यवसान बतलाया गया है। ताप-क्षेत्र 168. जया णं भंते ! सूरिए सव्वम्भंतरं मंडलं उवसंकमित्ता चारं चरइ तया णं किसंठिा तावखित्तसंठिई पण्णत्ता? गोयमा ! उद्धीमुहकलंबुनापुष्फसंठाणसंठिया तावखेतसंठिई पण्णत्ता / अंतो संकुइआ बाहिं वित्थडा, अंतो वट्टा बाहि विहुला, अंतो अंकमुहसंठिया बाहि सगडुद्धीमुहसंठिया, उभोपासे णं तीसे दो बाहाओ प्रवद्विप्रानो हवंति पणयालीसं 2 जोअणसहस्साई आयामेणं / दुवे अ णं तोसे बाहाम्रो प्रणवट्टियानो हवंति, तं जहा-सव्वन्भंतरिआ चेव बाहा सव्वबाहिरिपा चेव बाहा। तीसे गं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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