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________________ 66] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र सर्वाक्षर-संयोग-वेत्ता जिनवत् अवितथ-यथार्थ-सत्य-अर्थ-निरूपक चार हजार सात सौ पचास चतुर्दश-पूर्वधर-श्रुतकेवली, नौ हजार अवधिज्ञानी, बीस हजार जिन-सर्वज्ञ, बीस हजार छह सौ वैक्रियलब्धिधर, बारह हजार छह सौ पचास विपुलमति-मन:पर्यवज्ञानी, बारह हजार छह सौ पचास वादी तथा गति-कल्याणक-देवगति में दिव्य सातोदय रूप कल्याणयुक्त, स्थितिकल्याणकदेवायरूप स्थितिगत सख-स्वामित्व यक्त. ग्रागमिष्यदभद्र—अागामीभव में सिद्धत्व प्राप्त करने वाले अनुत्तरौपपातिक–अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वाले बाईस हजार नौ सौ मुनि थे। कौलिक अर्हत् ऋषभ के बीस हजार श्रमणों तथा चालीस हजार श्रमणियों ने सिद्धत्व प्राप्त किया--यों उनके साठ हजार अंतेवासी सिद्ध हुए। भगवान् ऋषभ के अनेक अंतेवासी अनगार थे—उनकी बड़ी संख्या थी। उनमें कई एक मास, (कई दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास, छह मास, सात मास, आठ मास, नौ मास, दस मास, ग्यारह मास, कई एक वर्ष, दो वर्ष, तीन वर्ष तथा कई अनेक वर्ष) के दीक्षा-पर्याय के थे। औपपातिक सूत्र के अनुरूप अनगारों का विस्तृत वर्णन जानना चाहिए। उनमें अनेक अनगार अपने दोनों घटनों को ऊँचा उठाये, मस्तक को नीचा किये-यों एक विशेष प्रासन में अवस्थित हो ध्यान रूप कोष्ठ में—कोठे में प्रविष्ट थे-ध्यान-रत थे-जैसे कोठे में रखा हुआ धान इधर-उधर बिखरता नहीं, खिडता नहीं, उसी प्रकार ध्यानस्थता के कारण उनकी इन्द्रियाँ विषयों में प्रसृत नहीं होती थीं। इस प्रकार वे अनगार संयम तथा तप से प्रात्मा को भावितअनुप्राणित करते हुए अपनी जीवन-यात्रा में गतिशील थे। भगवान् ऋषभ को दो प्रकार की भूमि थी-युगान्तकर-भूमि तथा पर्यायान्तकर-भूमि / युगान्तकर-भूमि गुरु-शिष्यक्रमानुबद्ध यावत् असंख्यात-पुरुष-परम्परा-परिमित थी तथा पर्यायान्तकर भूमि अन्तर्मुहुर्त थी (क्योंकि भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने के अन्तर्मुहर्त पश्चात् मरुदेवी को मुक्ति प्राप्त हो गई थी।) ___ 36. उसभे गं अरहा पंचउत्तरासाढे अभीइछ? होत्था, तंजहा--उत्तरासादाहिं चुए, चइत्ता गम्भं वक्कते, उत्तरासादाहि जाए, उत्तरासाढाहि रायाभिसेयं पत्ते, उत्तरासाढाहि मुडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारिअं पब्वइए, उत्तरासाढहि अणंते (अणुत्तरे निव्वाधाए, णिरावरणे कसिणे, पडिपुण्णे केवलवरनाणदंसणे) समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिव्वुए। [36] भगवान् ऋषभ के जीवनगत घटनाक्रम पाँच उत्तराषाढा नक्षत्र तथा एक अभिजित् नक्षत्र से सम्बद्ध हैं। __चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा नक्षत्र में उनका च्यवन--सर्वार्थसिद्ध-संज्ञक महाविमान से निर्गमन हुआ / च्युत-निर्गत होकर माता मरुदेवी की कोख में अवतरण हुआ / उसी में (चन्द्रसंयोगप्राप्त उत्तराषाढा में ही) जन्म-गर्भावास से निष्क्रमण हुआ। उसी में उनका राज्याभिषेक हुआ। उसी में वे मुंडित होकर, घर छोड़कर अनगार बने---गृहस्थवास से श्रमणधर्म में प्रवजित हुए। उसी में उन्हें अनन्त, (अनुत्तर, नियाघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, उत्तम केवलज्ञान, केवलदर्शन) समुत्पन्न हुग्रा। भगवान् अभिजित् नक्षत्र में परिनिर्वृत्त-सिद्ध, मुक्त हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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