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________________ 310] जम्बूद्वीपप्रज्ञरितसूत्र तए णं से सक्के देविदे देवराया 3 आभिओगे देवे सहावेइ 2 ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! भगवनो तित्थयरस्स जम्मणणयरंसि सिंघाडग जाव' महापहपहेसु महया 2 सद्देणं उग्छोसेमाणा 2 एवं वदह-'हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा य देवीमो अजेणं देवाणुप्पिा ! तित्थयरस्स तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स णं प्रज्जगमंजरिया इव सयधा मुद्धाणं फुट्टउत्ति' कटु घोसेणं घोसेह 2 ता एप्रमाणत्ति पच्चप्पिणहत्ति / तए णं ते प्राभिप्रोगा देवा (सक्केणं देविदेण देवरण्णा एवं वुत्ता समाणा) एवं देवोत्ति आणाए पडिसुणंति 2 ता सक्कस्स देविदस्स, देवरपणो अंतिमानो पडिणिक्खमंत्ति 2 ता खिप्पामेव भगवनो तित्थगरस्स जम्मणणगरंसि सिंघाडग जाव' एवं बयासी हंदि सुणंतु भवंतो बहवे भवणवइ (वाणमंतरजोइसमाणिया देवा य देवीप्रोप्र) जे णं देवाणुप्पिा ! तित्थयरस्स (तित्थयरमाऊए वा असुभं मणं पधारेइ, तस्स अज्जगमंजरिया इव सयधा मुद्धाणं) फुट्टिहीतित्ति कटु घोसणगं घोसंति 2 त्ता एप्रमाणत्तिनं पच्चप्पिणंति। ___तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिमा देवा भगवओ तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेंति 2 ता जेणेव णंदीसरदीवे, तेणेव उवागच्छति 2 ता अढाहियानो महामहिमाप्रो करेंति 2 ता जामेव दिसि पाउम्भूआ तामेव दिसि पडिगया। [156] तत्पश्चात् देवेन्द्र देवराज शक्र पांच शकों की विकुर्वणा करता है। एक शक भगवान् तीर्थंकर को अपनी हथेलियों के संपुट द्वारा ग्रहण करता है। एक शक्र भगवान् के पीछे उन पर छत्र धारण करता है-छत्र ताने रहता है। दो शक दोनों ओर चॅवर डुलाते हैं। एक शक्र बज्र हाथ में लिये आगे खड़ा होता है / फिर शक अपने चौरासी हजार सामानिक देवों, अन्य-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों, देवियों से परिवृत, सब प्रकार की ऋद्धि से युक्त, वाद्य-ध्वनि के बीच उत्कृष्ट त्वरित दिव्य गति द्वारा, जहाँ भगवान् तीर्थकर का जन्म-नगर, जन्म-भवन तथा उनकी माता थी वहाँ पाता है। भगवान् तीर्थकर को उनकी माता की बगल में स्थापित करता है / वैसा कर तीर्थंकर के प्रतिरूपक को, जो माता की बगल में रखा था, प्रतिसंहत करता है- समेट लेता है। भगवान तीर्थंकर की माता की अवस्वापिनी निद्रा को, जिसमें वह सोई होती है, प्रतिसंहृत कर लेता है। वैसा कर वह भगवान् तीर्थकर के उच्छीर्षक भूल में-सिरहाने दो बड़े वस्त्र तथा दो कुण्डल रखता है। फिर वह तपनीय-स्वर्ण-निर्मित झुम्बनक-झुनझुने से युक्त, सोने के पातों से परिमण्डित-सुशोभित, नाना प्रकार की मणियों तथा रत्नों से बने तरह-तरह के हारों--अठारह लड़े हारों, अर्धहारोंनौ लड़े हारों से उपशोभित श्रीदामगण्ड-सुन्दर मालाओं को परस्पर ग्रथित कर बनाया हुआ बड़ा गोलक भगवान् के ऊपर तनी चाँदनी में लटकाता है, जिसे भगवान् तीर्थंकर निनिमेष दृष्टि सेबिना पलकें झपकाए उसे देखते हुए सुखपूर्वक अभिरमण करते हैं--क्रीडा करते हैं / 1. देखें सूत्र संख्या 67 2. देखें सुत्र संख्या 67 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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