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________________ तृतीय वक्षस्कार] [119 आभरण प्रादि द्वारा सज्जित, सर्वविभूति-सब प्रकार के वैभव, सब प्रकार के वस्त्र, पुष्प सुगन्धित पदार्थ, फूलों की मालाएँ, अलंकार अथवा फूलों की मालानों से निर्मित आभरण - इनसे वह सुसज्जित था / सर्व प्रकार के वाद्यों की ध्वनि-प्रतिध्वनि, शंख, पणव --- पात्र विशेष पर मढे हुए ढोल, पटहबड़े ढोल, भेरी, झालर, खरमुही, मुरज-ढोलक, मृदंग तथा नगाड़े इनके समवेत घोष के साथ) वह जहाँ सिन्धु महानदी थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर चर्म-रत्न का स्पर्श किया। वह चर्म-रत्न श्रीवत्स–स्वस्तिक-विशेष जैसा रूप लिये था / उस पर मोतियों के, तारों के तथा अर्धचन्द्र के चित्र बने थे। वह अचल एवं अकम्प था / वह अभेद्य कवच जैसा था / नदियों एवं समुद्रों को पार करने का यन्त्र-अनन्य साधन था। दैवी विशेषता लिये था। चर्म-निर्मित वस्तुओं में वह सर्वोत्कृष्ट था। उस पर बोये हुए सत्तरह प्रकार के धान्य एक दिन में उत्पन्न हो सके, वह ऐसी विशेषता लिये था। ऐसी मान्यता है कि गृहपतिरत्न इस चर्म-रत्न पर सूर्योदय के समय धान्य बोता है, जो उग कर दिन भर में पक जाते हैं, गृहपति सायंकाल उन्हें काट लेता है। चक्रवर्ती भरत द्वारा परामष्ट वह चर्मरत्न कुछ अधिक बारह योजन विस्तृत था। सेनापति सुषेण द्वारा छाए जाने पर चर्मरत्न शीघ्र ही नौका के रूप में परिणत हो गया। सेनापति सुषेण सैन्य-शिविर -छावनी में विद्यमान सेना एवं हाथी, घोड़े, रथ आदि वाहनों सहित उस चर्म-रत्न पर सवार हुआ। सवार होकर निर्मल जल की ऊँची उठती तरंगों से परिपूर्ण सिन्धु महानदी को दलबलसहित, सेनासहित पार किया। विशाल विजय 68. तओ महाणईमुत्तरित्तु सिंधु अप्पडिहयसासणे अ सेणावई कहिंचि गामागरणगरपन्वयाणि खेडकब्बडमडंबाणि पट्टणाणि सिंहलए बब्बरए अ सव्वं च अंगलोअं बलायालोअं च परमरम्मं जवणदीवं च पवरमणिरयणगकोसागारसमिद्धं आरबके रोमके अ अलसंडविसयवासी अ पिक्खुरे कालमुहे जोणए अ उत्तरवेअड्डसंसियाओ अ मेच्छजाई बहुप्पगारा दाहिणप्रवरेण जाव सिंधुसागरंतोत्ति सव्वपवरकच्छं अ ओप्रवेऊण पडिणिप्रत्तो बहुसमरमणिज्जे अ भूमिभागे तस्स कच्छस्स सुहणिसण्णे, ताहे ते जणक्याण णगराण पट्टणाण य जे अतहिं सामिआ पभूआ आगरपती अ मंडलपती अ पट्टणपती अ सव्वे घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य वत्थाणि अ महरिहाणि अण्णं च जं वरिठें रायारिहं जं च इच्छिअव्वं ए सेगावइस्स उवणेति मत्थयकयंजलिपुडा, पुणरवि काऊण अंजलि मत्थयंमि पणया तुब्भे अम्हेऽत्थ सामिआ देवयंव सरणागया मो तुम्भं विसयवासिगोत्ति विजयं जपमाणा सेणावइणा जहारिहं ठविअ पूइन विसज्जिआ णिअत्ता सगाणि णगराणि पट्टणाणि अणुपविट्ठा, ताहे सेणावई सविणओ घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणि रयणाणि य पुणरवि तं सिंधुणामधेज्ज उत्तिणे अणहसासणबले, तहेव भरहस्स रणो णिवेएइ णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिश्रसम्माणिए सहरिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमइगए। तते णं सुसेणे सेणावई हाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते जिमिअभुत्तुत्तरागए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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