________________ 120] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र समाणे (आयंते चोक्खे परमसुईभूए) सरसगोसीसचंदणुक्खित्तगायसरीरे उपि पासायवरगए फुट्टमाणेहि मुइंगमत्थरहिं बत्तीसइबद्ध हि गाडएहि वरतरुणीसंपउत्तेहि उवणच्चिज्जमाणे 2 उवगिज्जमाणे 2 उवलालि (लभि) ज्जमाणे 2 महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइअरवेणं इठे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे भुजमाणे विहरइ / [68] सिन्धु महानदी को पार कर अप्रतिहत-शासन—जिसके आदेश का उल्लंघन करने में कोई समर्थ नहीं था, वह सेनापति सुषेण ग्राम, आकर, नगर, पर्वत, खेट, कर्वट, मडम्ब, पट्टन आदि जीतता हुया, सिंहलदेशोत्पन्न, बर्बरदेशोत्पन्न जनों को, अंगलोक, बलावलोक नामक क्षेत्रों को, अत्यन्त रमणीय, उत्तम मणियों तथा रत्नों के भंडारों से समृद्ध यवन द्वीप को, अरब देश के, रोम देश के लोगों को अलसंड-देशवासियों को, पिक्खुरों, कालमुखों, जोनकों-- विविध म्लेच्छ जातीय जनों को तथा उत्तर वैताढ्य पर्वत की तलहटी में वसी हुई बहुविध म्लेच्छ जाति के जनों को, दक्षिण-पश्चिम-नैऋत्यकोण से लेकर सिन्धु नदी तथा समुद्र के संगम तक के सर्वप्रवर ---सर्वश्रेष्ठ कच्छ देश को साधकर-जीतकर वापस मुड़ा / कच्छ देश के अत्यन्त सुन्दर भूमिभाग पर ठहरा / तब उन जनपदों देशों, नगरों, पत्तनों के स्वामी, अनेक आकरपति–स्वर्ण आदि की खानों के मालिक, मण्डलपति, पत्तनपतिवृन्द ने आभरण –अंगों पर धारण करने योग्य अलंकार, भूषण--उपांगों पर धारण करने योग्य अलंकार, रत्न, बहुमूल्य वस्त्र, अन्यान्य श्रेष्ठ, राजोचित वस्तुएँ हाथ जोड़कर, जुड़े हुए हाथ मस्तक से लगाकर उपहार के रूप में सेनापति सुषेण को भेंट की। वापस लौटते हुए उन्होंने पुनः हाथ जोड़े, उन्हें मस्तक से लगाया, प्रणत हुए। वे बड़ी नम्रता से बोले—'आप हमारे स्वामी हैं। देवता की ज्यों आपके हम शरणागत हैं, आपके देशवासी हैं / इस प्रकार विजयसूचक शब्द कहते हुए उन सबको सेनापति सुषेण ने पूर्ववत् यथायोग्य कार्यों में प्रस्थापित किया, नियुक्त किया, उनका सम्मान किया और उन्हें विदा किया। वे अपने अपने नगरों, पत्तनों आदि स्थानों में लौट आये। अपने राजा के प्रति विनयशील, अनुपहत-शासन एवं बलयुक्त सेनापति सुषेण ने सभी उपहार, आभरण, भूषण तथा रत्न लेकर सिन्धु नदी को पार किया। वह राजा भरत के पास आया / आकर जिस प्रकार उस देश को जीता, वह सारा वृत्तान्त राजा को निवेदित किया। निवेदित कर उससे प्राप्त सभी उपहार राजा को अर्पित किये। राजा ने सेनापति का सत्कार किया, सम्मान किया, सहर्ष विदा किया / सेनापति तम्ब में स्थित अपने प्रावास-स्थान में पाया। ___तत्पश्चात् सेनापति सुषेण ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कृत्य किये, देह-सज्जा की दृष्टि से नेत्रों में अंजन प्रांजा, ललाट पर तिलक लगाया, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुकुम, दही, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया / फिर उसने राजसी ठाठ से भोजन किया / भोजन कर विश्रामगृह में आया / (आकर शुद्ध जल मे हाथ, मुंह आदि धोये, शुद्धि की / शरीर पर ताजे गोशीर्ष चन्दन का जल छिड़का, ऊपर अपने आवास में गया / वहाँ मृदंग बज रहे थे / सुन्दर, तरुण स्त्रियाँ बत्तीस प्रकार के अभिनयों द्वारा नाटक कर रही थीं। सेनापति की पसन्द के अनुरूप नत्य आदि क्रियानों द्वारा वे उसके मन को अनुरंजित करती थीं। नाटक में गाये जाते गीतों के अनुरूप वीणा, तबले एवं ढोल बज रहे थे / मृदंगों से बादल की-सी गंभीर ध्वनि निकल रही थी। वाद्य बजाने वाले वादक अपनी अपनी वादन-कला में बड़े निपुण थे। निपुणता से अपने अपने वाद्य वजा रहे थे। मेना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org