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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूब वदिस्संति-जाते णं देवाणुप्पिा ! भरहे वासे परूढरुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लि-तण-पव्यय-हरिय(ोसहीए, उवचिअतय-पत्त-पवाल-पल्लवंकुर-पुण्फ-फलसमुइए,) सुहोवभोगे, तं जे णं देवाणुप्पिा ! अम्हं केइ अज्जप्पभिइ असुभं कुणिमं प्राहारं आहारिस्सइ, से णं अणेगाहिं छायाहि वज्जणिज्जेत्ति कटु संठिई ठवेस्संति, ठवेत्ता भरहे वासे सुहंसुहेणं अभिरममाणा 2 विहरिस्संति / [46] तब वे बिलवासी मनुष्य देखेंगे-भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि–ये सब उग पाये हैं। छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प तथा फल परिपुष्ट, समुदित एव सुखोपभोग्य हो गये हैं। ऐसा देखकर वे बिलों से निकल आयेंगे। निकलकर हर्षित एवं प्रसन्न होते हुए एक दूसरे को पुकारेंगे, पुकार कर कहेंगे-देवानुप्रियो ! भरतक्षेत्र में वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, बेल, तृण, पर्वग, हरियाली, औषधि --ये सब उग आये हैं / (छाल, पत्र, प्रवाल, पल्लव, अंकुर, पुष्प, फल) ये सब परिपुष्ट, समुदित तथा सुखोपभोग्य हैं / इसलिए देवानुप्रियो ! अाज से हम में से जो कोई अशुभ, मांसमूलक आहार करेगा, (उसके शरीर-स्पर्श की तो बात ही दूर), उसकी छाया तक वर्जनीय होगी उसकी छाया तक को नहीं छूएंगे। ऐसा निश्चय कर वे संस्थितिसमीचीन व्यवस्था कायम करेंगे / व्यवस्था कायम कर भरतक्षेत्र में सुखपूर्वक, सोल्लास रहेंगे। उत्सपिणी : विस्तार 50. तीसे गं समाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोमारे भविस्सइ ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे भविस्सइ (से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवर्णोह) कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहि चेव / तोसे णं भंते समाए मणुप्राणं केरिसए पायारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! तेसि णं मणुआणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूईओ रयणीग्रो उड्ढं उच्चत्तणं, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं प्राउभं पालेहिति, पालेत्ता अप्पेगइना णिरयगामी, (अप्पेगइमा तिरियगामी, अप्पेगइमा मणुयगामी,) अप्पेगइया देवगामी, ण सिझति / तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइक्कते अणंतेहि वण्णपज्जवेहिं जाव' परिवड्ढेमाणे 2 एत्थ णं दुस्समसुसमा णाम समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो ! तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए पायारभावपडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे (भूमिभागे भविस्सइ, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा, मुइंगपुक्खरेइ वा जाव जाणामणिपंचवणेहि कित्तिमेहि चेव) अकित्तिमेहि चेव / तेसि णं भंते ! मणुाणं केरिसए आयार-भाव-पडोयारे भविस्सइ ? गोयमा ! तेसि णं मणुाणं छविहे संघयणे, छविहे संठाणे, बहूई धणूइंउद्धउच्चत्तणं, जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीग्राउनं पालिहिति, पालेता अप्पेगइमा णिरयगामी, (अप्पेगहना तिरियगामी, अप्पेगइया मणुयगामी, अप्पेगइश्रा देवगामी, अप्पेगइमा सिझंति बुझंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणं) अंतं करेहिति / 1. देखें सूत्र संख्या 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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