SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [255 चतुषं पक्षकार] पलाश नामक विदिग्रहस्तिकट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में एवं पश्चिम दिग्वर्ती शोतोदा महानदी के उत्तर में है। वहाँ पलाश नामक देव निवास करता है / उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में है। अवतंस नामक विदिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में तथा उत्तर दिग्गत शीता महानदी के पश्चिम में है। वहाँ अवतंस नामक देव निवास करता है। उसकी राजधानी उत्तर-पश्चिम में वायव्य कोण में है / रोचनागिरि नामक दिग्हस्तिकूट मन्दर पर्वत के उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में और उत्तर दिग्गत शीता महानदी के पूर्व में है। रोचनागिरि नामक देव उस पर निवास करता है / उसकी राजधानी उत्तर-पूर्व में-ईशान कोण में है। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में मन्दर पर्वत के पद्मोत्तर, नीलवान्, सुहस्ती, अंजनगिरि, कुमुद, पलाश, अवतंस तथा रोचनागिरि---इन आठ दिग्हस्तिकूटों का उल्लेख हुआ है। हाथी के आकार के ये कूट-शिखर भिन्न-भिन्न दिशाओं एवं विदिशाओं में संस्थित हैं। इन कटों की चर्चा के प्रसंग में पद्मोत्तर, नीलवान्, सुहस्ती तथा अंजनगिरि को दिशा-हस्तिकूट कहा गया है और कुमुद, पलाश एवं अवतंस को विदिशा-हस्तिकूट कहा गया है। प्राशय स्पष्ट है, पहले चार, जैसा सूत्र में वर्णन है, भिन्न-भिन्न दिशाओं में विद्यमान हैं तथा अगले तीन विदिशाओं में विद्यमान हैं / अन्तिम आठवें कूट रोचनागिरि के लिए दिशाहस्तिकूट शब्द आया है, जो संशय उत्पन्न करता है। आठ कूट अलग-अलग चार दिशामों में तथा चार विदिशाओं में हों. यह संभाव्य है। रोचनागिरि के दिशाहस्तिकूट के रूप में लिये जाने से दिशा-हस्तिकूट पांच होंगे तथा विदिशा-हस्तिकूट तीन होंगे / ऐसा संगत प्रतीत नहीं होता। प्रागमोदय समिति के, पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज के तथा पूज्य श्री घासीलाल जी महाराज के जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र के संस्करणों के पाठ में तथा अर्थ में रोचनागिरि का दिशाहस्तिकूट के रूप में ही उल्लेख हुया है / यह विचारणीय एवं गवेषणीय है। नन्दन यन 133. कहि णं भन्ते ! मन्दरे पव्वए गंदणवणे णामं वणे पण्णते ? गोयमा ! भद्दसालवणस्स बहुसमरमणिज्जायो भूमिभागाओ पञ्चजोअणसयाई उद्धं उप्पइता एस्थ णं मन्दरे पम्वए णन्दणवणे णामं वणे पण्णत्ते। पञ्चजोपणसयाई चक्कवालविक्खम्भेणं, वट्टे, वलयाकारसंठाणसंठिए, जे णं मन्दरं पव्वयं सम्वनो समन्ता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठा ति। णवजोअणसहस्साइं गव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स बाहिं गिरिविक्खम्भो, एगत्तीसं जोअणसहस्साई चत्तारि प्रअउणासीए जोअणसए किंचि विसेसाहिए बाहि गिरिपरिरएणं, अट्ट जोनणसहस्साई णव य चउप्पण्णे जोअणसए छच्चेगारसभाए जोअणस्स अंतो गिरिविक्खम्भो, अद्रावीसं जोअणसहस्साई तिणि य सोलसुत्तरे जोअणसए अट्ट य इक्कारसभाए जोपणस्स अंतो गिरिपरिरएणं / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समन्ता संपरिक्खिते वणओ जाव आसयन्ति / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy