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________________ 34] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र फूलों के गुच्छों, लतानों के गुल्मों तथा मंडपों से शोभित थीं। मानो वे उनकी अनेक प्रकार की सुन्दर ध्वजाएँ हों / बावड़ियाँ-चतुष्कोण जलाशय, पुष्करिणी-गोलाकार जलाशय, दीपिका-सीधे लम्बे जलाशय-इन सब के ऊपर सुन्दर जालगृह-गवाक्ष-झरोखे बने थे। वे वनराजियाँ ऐसी तृप्तिप्रद सुगन्ध छोड़ती थीं, जो बाहर निकलकर पुजीभूत होकर बहुत दूर फैल जाती थीं, बड़ी मनोहर थीं। उन वनराजियों में सब ऋतुओं में खिलने वाले फूल तथा फलने वाले फल प्रचुर मात्रा में पैदा होते थे / वे सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप—मनोज्ञ--मन को अपने में रमा लेने वाली तथा प्रतिरूप—मन में बस जाने वाली थीं। द्रुमगरण 27. तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ तहि तहि मत्तंगा णामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से चंदप्पभा-(मणिसिलाग-वरसीधु-वरवारुणि-सुजायपत्तपुप्फफलचोअणिज्जा, ससारबहुदध्वजुत्तिसंभारकालसंधि-औसवा, महुमेरग-रिट्ठाभदुद्धजातिपसन्नतल्लगसाउ-खज्जूरिमुद्दियासारकाविसायण-सुपषकखोअरसवरसुरा, वण्ण-गंध-रस-फरिस-जुत्ता, बलवीरिअपरिणामा मज्जविही बहुप्पगारा, तहेव ते मत्तंगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मज्जविहीए उववेया, फलेहि पुण्णा वीसंदंति कुसविकुस-विसुद्धरुक्खमूला,) छण्णपडिच्छण्णा चिट्ठति, एवं जाव (तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे) प्रणिगणा णामं दुमगणा पण्णत्ता। [27] उस समय भरतक्षेत्र में जहाँ-तहाँ मत्तांग नामक कल्पवृक्ष-समूह थे। वे चन्द्रप्रभा, (मणिशिलिका, उत्तम मदिरा, उत्तम वारुणी, उत्तम वर्ण, गन्ध, रस तथा स्पर्श युक्त, बलवीर्यप्रद सुपरिपक्व पत्तों, फूलों और फलों के रस एवं बहुत से अन्य पुष्टिप्रद पदार्थों के संयोग से निष्पन्न पासव, मधु---मद्यविशेष, मेरक-मद्यविशेष, रिष्टाभारिष्ट रत्न के वर्ण की सुरा या जामुन के फलों से निष्पन्न सुरा, दुग्ध जाति-प्रसन्ना-आस्वाद में दूध के सदृश सुरा-विशेष, तल्लक-सुरा-विशेष, शतायु-सुरा-विशेष, खजूर के सार से निष्पन्न आसवविशेष, द्राक्षा के सार से निष्पन्न पासवविशेष, / कपिशायन—मद्य-विशेष, पकाए हुए गन्ने के रस से निष्पन्न उत्तम सुरा, और भी बहुत प्रकार के मद्य प्रचुर मात्रा में, तथाविध क्षेत्र, सामग्री के अनुरूप प्रस्तुत करने वाले फलों से परिपूर्ण थे। उनसे ये सब मद्य, सुराएँ चूती थीं। उनकी जड़ें डाभ तथा दूसरे प्रकार के तृणों से विशुद्ध-रहित थीं। वे वृक्ष खूब छाए हुए और फैले हुए रहते थे।) इसी प्रकार यावत् (उस समय सर्वविध भोगोपभोग सामग्रीप्रद अनग्नपर्यन्त दस प्रकार के) अनेक कल्पवृक्ष थे। विवेचन–दस प्रकार के कल्पवृक्षों में से प्रथम मत्तांग और दसवें अनग्न का मूल पाठ में साक्षात् उल्लेख हुआ है। मध्य के पाठ कल्पवृक्ष 'जाव' शब्द से गृहीत किये गये हैं। सब के नामकाम इस प्रकार हैं 1. मत्तांग-मादक रस प्रदान करने वाले, 2. भृत्तांग--विविध प्रकार के भाजन-पात्र-बरतन देने वाले, 3. श्रुटितांग-नानाविध वाद्य देने वाले, 4. दीपशिखा-प्रकाशप्रदायक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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