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________________ प्रथम वक्षस्कार [7 [6] उस वन-खंड में एक अत्यन्त समतल, रमणीय भूमिभाग है / वह आलिंग-पुष्कर—मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग-चर्म-पुट (मृदंग का ऊपरी भाग), जलपूर्ण सरोवर के ऊपरी भाग, हथेली, चन्द्र-मंडल, सूर्य-मंडल. दर्पण-मंडल, शंकु सदश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर चारों ओर से समान किये गये भेड़, बैल, सूअर, शेर, बाघ, बकरे और चीते के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग अनेकविध प्रावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, पुष्यमाणव, शराव-संपुट, मत्स्य के अंडे, मकर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमल-पत्र, सागर-तरंग, वासन्तीलता, पद्मलता के चित्रांकन से राजित, आभायुक्त, प्रभायुक्त, शोभायुक्त, उद्योतयुक्त, बहुविध पंचरंगी मणियों से, तृणों से सुशोभित है / कृष्ण आदि उनके अपने-अपने विशेष वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श तथा शब्द हैं / वहाँ पुष्करिणी, पर्वत, मंडप, पृथ्वी-शिलापट्ट हैं। वहाँ अनेक वानव्यन्त र देव एवं देवियां प्राश्रय लेते हैं, शयन करते हैं, खड़े होते हैं, बैठते हैं, त्वग्वर्तन करते हैं-देह को दायें-बायें घुमाते हैं मोड़ते हैं, रमण करते हैं, मनोरंजन करते हैं, क्रीडा करते हैं, सुरत-क्रिया करते हैं। यों वे अपने पूर्व प्राचरित शुभ, कल्याणकर-पुण्यात्मक कर्मों के फल-स्वरूप विशेष सुखों का उपभोग करते रहते हैं। __ उस जगती के ऊपर पद्मवरवेदिका-मणिमय पद्मरचित उत्तम वेदिका के भीतर एक विशाल बन-खंड है / वह कुछ कम दो योजन चौड़ा है ! उसकी परिधि वेदिका जितनी है / वह कृष्ण, (कृष्णआभामय, नील, नील-प्राभामय, हरित, हरित-पाभामय, शीतल, शीतल-ग्राभामय, स्निग्ध, स्निग्धप्राभामय, तीव्र, तीव्र-आभामय, कृष्ण, कृष्ण-छायामय, नील, नील-छायामय, हरित, हरित-छायामय, शीतल, शीतल-छायामय, स्निग्ध, स्निग्ध-छायामय, तीव्र, तीव्र-छायामय, वृक्षों की शाखा-प्रशाखाओं के परस्पर मिले होने से सघन छायामय, रम्य एवं विशाल मेघ-समुदाय जैसा भव्य तथा) तृणों के शब्द से रहित है–प्रशान्त है / जम्बूद्वीप के द्वार 7. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कइ दारा पण्णता? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णता, तं जहा–विजए, वेजयंते, जयंते, अपराजिए। [7] भगवन् ! जम्बूद्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप के चार द्वार हैं.---१. विजय, 2. वैजयन्त, 3. जयन्त तथा 4. अपराजित / 8. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइवइत्ता जंबुद्दीवदीवपुरथिमपेरंते लवणसमुद्दपुरथिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीआए महाणईए उप्पि एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ट जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणगथूभियाए, जाव दारस्स वगणो जाव रायहाणी / [8] भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजय नामक द्वार कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप स्थित मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में 45 हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप के पूर्व के अंत में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम में सीता महानदी पर जम्बूद्वीप का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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