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________________ कुलकर : एक चिन्तन __ भोगभूमि के अन्तिम चरण में घोर प्राकृतिक परिवर्तन होता है। इससे पूर्व भोगभूमि में मानव को जीवन प्रशान्त था पर जब प्रकृति में परिवर्तन हुआ तो भोले-भाले मानव विस्मित हो उठे। उन्होंने सर्वप्रथम सूर्य का चमचमाता पालोक देखा और चन्द्रमा की चारु चन्द्रिका को छिटकते हुए निहारा / वे सोचने लगे कि ये ज्योतिपिण्ड क्या हैं ? इसके पूर्व भी सूर्य और चन्द्र थे पर कल्पवक्षों के दिव्य पालोक के कारण मानवों का ध्यान उधर मया नहीं था। अब कल्पवक्षों का पालोक क्षीण हो गया तो सूर्य और चन्द्र की प्रभा प्रकट हो गई / उससे प्रातंकित मानवों को प्रतिश्रुति कुलकर ने कहा कि इन ज्योतियों से भयभीत होने की प्रावश्यकता नहीं है। ये ज्योतिपिण्ड तुम्हारा कुछ भी बाल बांका नहीं करेंगे। ये ज्योतियाँ ही दिन और रात की अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं। प्रतिश्रुति के इन प्राश्वासन-वचनों से जनमानस प्रतिश्रुत (पाश्वस्त) हुमा और उन्होंने प्रतिश्रुति का अभिवादन किया। काल के प्रवाह से तेजांग नामक कल्पवृक्षों का तेज प्रतिपल-प्रतिक्षण क्षीण हो रहा था, जिससे अनन्त आकाश में तारागण टिमटिमाते हुए दिखलाई देने लगे। सर्वप्रथम मानवों ने अन्धकार को निहारा। अन्धकार को निहार कर वे भयभीत हुए। उस समय सन्मति नामक कुलकर ने उन मानवों को आश्वस्त किया कि आप न घबरायें। तेजांग कल्पवक्ष के तेज के कारण प्रापको पहले तारागण दिखालाई नहीं देते थे / प्राज उनका प्रकाश क्षीण हो गया है जिससे टिमटिमाते हुए तारागण दिखलाई दे रहे हैं। प्राप घबराइये नहीं, ये आपको कुछ भी क्षति नहीं पहुँचाएंगे। अतः उन मानवों ने सन्मति का अभिनन्दन किया। कल्पवृक्षों की शक्ति धीरे-धीरे मन्द और मन्दतर होती जा रही थी जिससे मानवों की प्रावश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही थी। अतः वे उन कल्पवक्षों पर अधिकार करने लगे थे। कल्पवृक्षों की संख्या भी पहले से बहुत अधिक कम हो गई थी, जिससे परस्पर विवाद और संघर्ष की स्थिति पैदा हो गई थी / क्षेमंकर और क्षेमन्धर कुलकरों ने कल्पवक्षों की सीमा निर्धारित कर इस बढ़ते हुए विवाद को उपशान्त किया था। प्रावश्यकनियुक्ति के अनुसार एक युगल वन में परिभ्रमण कर रहा था, सामने से एक हाथी, जिसका रंग श्वेत था, जो बहुत ही बलिष्ठ था, वह पा रहा था। हाथी ने उस युगल को निहारा तो उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उस ज्ञान से उसने यह जाना कि हम पूर्व भव में पश्चिम महाविदेह में मानव थे। हम दोनों मित्र थे। यह सरल था पर मैं बहुत ही कुटिल था। कुटिलता के कारण मैं मरकर हाथी बना और यह मानव बना / सनिकट पहुँचने पर उसने सूड उठाकर उसका आलिंगन किया और उसे उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया। जब अन्य युगलों ने यह चीज देखी तो उन्हें भी पाश्चर्य हुा / उन्होंने सोचा-यह व्यक्ति हम से अधिक शक्तिशाली है, अतः इसे हमें अपना मुखिया बना लेना चाहिए / विमल कान्ति वाले हाथी पर भारूढ होने के कारण उसका नाम विमलबाहन विश्रुत हमा। नीतिज्ञ विमलवाहन कुलकर ने देखा कि यौगलिकों में कल्पवृक्षों को लेकर परस्पर संघर्ष है। उस संघर्ष को मिटाने के लिए कल्पवृक्षों का विभाजन किया। तिलोयपण्णत्ति७२ के अनुसार उस युग में हिमतुषार का प्रकोप हुआ था। प्रकृति के परिवर्तन के कारण सूर्य का आलोक मन्द था. जिसके कारण वाष्पावरण चारों ओर हो गया। सूर्य की तप्त किरणें उस वाष्प का भेदन न कर सकीं मौर 69. तिलोयपण्णत्ति, 4/425 से 429 70. तिलोयपण्णत्ति, 4/439 से 456 71. (क) प्रावश्यकनियुक्ति, पृ. 153 (ख) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र, 1/2/142-147 72. तिलोयपण्णत्ति, 4/475-481 [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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