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________________ [जम्यूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस प्रारक के इक्कीस हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर उत्सपिणीकाल का दुःषम-सुषमा नामक तृतीय प्रारक प्रारंभ होगा / उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि क्रमशः परिवद्धित होते जायेंगे / भगवन् ! उस काल में भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उसका भूमिभाग बड़ा समतल एवं रमणीय होगा। (वह मुरज के अथवा मृदंग के ऊपरी भाग-चर्मपुट जैसा समतल होगा / वह नानाविध कृत्रिम, अकृत्रिम पंचरंगी मणियों से उपशोभित होगा। भगवन् ! उन मनुष्यों का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उन मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन तथा संस्थान होंगे। उनके शरीर की ऊँचाई अनेक धनुष-परिमाण होगी / जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट एक पूर्व कोटि तक का उनका आयुष्य होगा / आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक-गति में. (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में जायेंगे, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिर्वृत्त होंगे,) समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। उस काल में तीन वश उत्पन्न होंगे-१. तीर्थकर-वश, 2. चक्रवति-वश तथा 3. दशारवंश-वलदेव-वासुदेव-वंश / उस काल में तेवीस तीर्थंकर, ग्यारह चक्रवर्ती तथा नौ वासुदेव उत्पन्न होंगे। आयुष्मन् श्रमण गौतम ! उस आरक का बयालीस हजार वर्ष कम एक सागरोपम कोडाकोडी काल व्यतीत हो जाने पर उत्सर्पिणी-काल का सुषम-दुःषमा नामक चतुर्थ आरक प्रारंभ होगा। उसमें अनन्त वर्ण-पर्याय आदि अनन्तगुण परिवृद्धि क्रम से परिवद्धित होंगे। वह काल तीन भागों में विभक्त होगा-प्रथम तृतीय भाग, मध्यम तृतीय भाग तथा अन्तिम तृतीय भाग। भगवन् ! उस काल के प्रथम विभाग में भरतक्षेत्र का आकार-स्वरूप कैसा होगा? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल तथा रमणीय हागा / अवसर्पिणी-काल के सुषमदुःषमा प्रारक के अन्तिम तृतीयांश में जैसे मनुष्य बताये गये हैं, वैसे ही इसमें होंगे। केवल इतना अन्तर होगा, इसमें कुलकर नहीं होंगे, भगवान् ऋषभ नहीं होंगे। इस संदर्भ में अन्य प्राचार्यों का कथन इस प्रकार हैउस काल के प्रथम विभाग में पन्द्रह कुलकर होंगे... 1. सुमति, 2. प्रतिश्रुति, 3. सीमकर, 4. सीमन्धर, 5. क्षेमकर, 6. क्षेमंधर, 7. विमलवाहन, 8. चक्षुष्मान्, 6. यशस्वान्, 10. अभिचन्द्र , 11. चन्द्राभ, 12. प्रसेनजित्, 13. मरुदेव, 14. नाभि, 15. ऋषभ / शेष उसी प्रकार है / दण्डनीतियां प्रतिलोम-विपरीत क्रम से होंगी, ऐसा समझना चाहिए / उस काल के प्रथम विभाग में राज-धर्म (गण-धर्म, पाखण्ड-धर्म, अग्नि-धर्म तथा) चारित्रधर्म विच्छिन्न हो जायेगा। इस काल के मध्यम तथा अन्तिम विभाग की वक्तव्यता अवसर्पिणी के प्रथम-मध्यम विभाग की ज्यों समझनी चाहिए / सुषमा और सुषम-सुषमा काल भी उसी जैसे हैं / छह प्रकार के मनुष्यों ग्रादि का वर्णन उसी के सदृश है / O Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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