________________ डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. जीवर, प्रोफेसर विरूपाक्ष प्रादि अनेक विद्वानों ने इस सत्य तथ्य को स्वीकार किया है कि वेदों में भगवान ऋषभदेव का उल्लेख है। वैदिक महर्षिगण भक्ति-भावना से विभोर होकर प्रभ की स्तुति करते हुए कहते हैं-हेप्रात्मदृष्टा प्रभु ! परमसुख को प्राप्त करने के लिये हम आपकी शरण में प्राना चाहते हैं / ऋग्वेद, २५यजुर्वेद 12 और अथर्ववेद' २७में ऋषभदेव के प्रति अनन्त प्रास्था व्यक्त की गई है और विविध प्रतीकों के द्वारा ऋषभदेव की स्तुति की गई है। कहीं पर जाज्वल्यमान अग्नि के रूप में, कहीं पर परमेश्वर' 3 के रूप में, कहीं शिव' 3°के रूप में, कहीं हिरण्यगर्भ 31 के रूप में, कहीं ब्रह्मा ३२के रूप में, कहीं विष्ण' 33के रूप में, कहीं वातरसना श्रमण' 34 के रूप में, कहीं केशी ३५के रूप में स्तुति प्राप्त है। . श्रीमद्भागवत' में ऋषभदेव का बहुत विस्तार से वर्णन है। उनके माता-पिता के नाम, सुपुत्रों का उल्लेख, उनकी ज्ञानसाधना, धार्मिक और सामाजिक नीतियों का प्रवर्तन और भरत के अनासक्त योग को चित्रित किया गया है तथा अन्य पुराणों में भी ऋषभदेव के जीवनप्रसंग अथवा उनके नाम का उल्लेख हुमा है। बौद्धपरम्परा के महनीय ग्रन्थ धम्मपद'3 में भी ऋषभ और महावीर का एक साथ उल्लेख हुआ है। उसमें ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ और धीर प्रतिपादित किया है। अन्य मनीषियों ने उन्हें प्रादिपुरुष मानकर उनका वर्णन किया है। 125. ऋग्वेद, 101166 / 1 126. वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् / तमेव विदित्वाति मृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय // 127. अथर्ववेद, कारिका, 196424 128, अथर्ववेद, 9 / 4 / 3, 7, 18 129. अथर्ववेद, 9 / 47 130. प्रभासपुराण, 49 131. (क) ऋग्वेद 10 / 12111 . (ख) तैत्तिरीयारण्यक भाष्य सायणाचार्य 2012 (ग) महाभारत, शान्तिपर्व 349 (घ) महापुराण, 12 / 95 132. ऋषभदेवः एक परिशीलन, द्वि. संस्क., पृ. 49 133. सहस्रनाम ब्रह्मशतकम्, श्लोक 100-102 134. (क) ऋग्वेद, 10 / 136 / 2 (ख) तैतिरियारण्यक, 2071, पृ. 137 (ग) बृहदारण्यकोपनिषद्, 413 / 22 (घ) एन्शियण्ट इण्डिया एज डिस्क्राइब्ड बाय मेगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकता, 1916, पृ. 97-98 135. (क) पद्मपुराण, 31288 (ख) हरिवंशपुराण 9 / 204 (ग) ऋग्वेद 10113631 136. श्रीमद्भागवत, 123 / 13; 217.10; 2320; 54 / 5; 5 / 48; 5 / 4 / 9-13; 5 / 4 / 20; 5516; 5 // 5 // 19; 5 / 5 / 28; 5 / 14 / 42-44; 5 // 15 // 1 137. उसभं पवरं वीरं महेसि विजिताविनं / अनेज नहातक बुद्धं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं // -धम्मपद 422 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org