________________ 290] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र उत्सुकता से, अनेक जिनेन्द्र भगवान के प्रति भक्ति-अनुरागवश तथा कतिपय इसे अपना परंपरानुगत आचार मानकर वहाँ उपस्थित हो जाते हैं / - देवेन्द्र, देवराज शक्र उन वैमानिक देव-देवियों को अविलम्ब अपने समक्ष उपस्थित देखता है। देखकर प्रसन्न होता है / वह अपने पालक नामक प्राभियोगिक देव को बुलाता है / बुलाकर उसे कहता है देवानुप्रिय ! सैकड़ों खंभों पर अवस्थित, कोडोद्यत पुत्तलियों से कलित-शोभित, ईहामगवक, वषभ, अश्व, मनुष्य, मकर, खग, सर्प, किन्नर, हरु संज्ञक मग, शरभ-अष्टापद, चमर-चवरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्रांकन से युक्त, खंभों पर उत्कीर्ण वज्ररत्नमयी वेदिका द्वारा सुन्दर प्रतीयमान. संचरणशील सहजात पुरुष-युगल की ज्यों प्रतीत होते चित्रांकित विद्याधरों से समायुक्त, अपने पर जड़ी सहस्रों मणियों तथा रत्नों की प्रभा से सुशोभित, हजारों रूपकों-चित्रों से सुहावने, अतीव देदीप्यमान, नेत्रों में समा जाने वाले, सुखमय स्पर्शयुक्त, सश्रीक--शोभामय रूपयुक्त, पवन से प्रान्दोलित घण्टियों की मधुर, मनोहर ध्वनि से युक्त, सुखमय, कमनीय, दर्शनीय, कलात्मक रूप में सज्जित, देदीप्यमान मणिरत्नमय घण्टिकाओं के समूह से परिव्याप्त, एक हजार योजन विस्तीर्ण, पाँच सौ योजन ऊँचे, शीघ्रगामी, त्वरितगामी, अतिशय वेगयुक्त एवं प्रस्तुत कार्य-निर्वहण में सक्षम दिव्य यान-विमान की विकुर्वणा करो। आज्ञा का परिपालन कर सूचित करो। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वर्णित शक्रेन्द्र के देव-परिवार तथा विशेषणों आदि का स्पष्टीकरण इस प्रकार है सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र के तीन परिषद् होती हैं-शमिता-आभ्यन्तर, चण्डामध्यम तथा जाता-बाह्य / आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियाँ, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियाँ एवं बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पाँच सौ देवियाँ होती हैं। प्राभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति पाँच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम और देवियों की स्थिति एक पल्योपम की होती है। अग्रमहिषी परिवार प्रत्येक अग्रमहिषी-पटरानी-प्रमुख इन्द्राणी के परिवार में पांच हजार देवियाँ होती हैं। यों इन्द्र के अन्तःपुर में चालीस हजार देवियों का परिवार होता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-ये पाँच सेनाएँ होती हैं तथा दो सेनाएँ-गन्धर्वानीक-- गाने-बजाने वालों का दल और नाटयानीक-नाटक करने वालों का दल-आमोद-प्रमोद पूर्वक रणोत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम आये हैं, जो वैदिक परंपरा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं / जैन परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण एवं इनकी सार्थकता इनके अर्थ में आ चुकी है। वैदिक परंपरा के अनुसार इन नामों के कारण अन्य हैं, जो इस प्रकार हैं शतक्रतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है / सौ यज्ञ पूर्णरूपेण संपन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परंपरा में ऐसी मान्यता है। अतः शतऋतु शब्द सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र-पद पाने के अर्थ में प्रचलित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org