________________ कला का पूर्ण विकास भगवान ऋषभदेव के युग में हो चुका था पर श्रुत-ज्ञान का लेखन नहीं हमा। चिरकाल तक वह ज्ञानधारा मौखिक रूप में ही चलती रही। यही कारण है कि आगम साहित्य की उत्थानिका में 'सुयं में आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय' अर्थात् प्रायुष्मन् ! मैंने सुना है, भगवान् ने ऐसा कहा है, शब्दावली उटैंकित की गई है। इसी प्रकार 'तस्स गं अयम? पण्णत्त' अर्थात् भगवान् ने इसका यह अर्थ कहा है, शब्दावली का प्रयोग है। मागमसाहित्य में यत्र-तत्र इस प्रकार की शब्दावलियां प्रयुक्त हुई हैं, इससे यह स्पष्ट है कि आगम के अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं, पर सूत्र की रचना या अभिव्यक्ति की जो शैली है, वह गणधरों की या स्थविरों की है। गणधर या स्थविर अपनी कमनीय कल्पना का सम्मिश्रण उसमें नहीं करते, वे तो केवल भाव को भाषा के परिधान से समलंकृत करते हैं। नन्दीसूत्र में कहा गया है कि जैनागम तीर्थकर-प्रणीत हैं, इसका तात्पर्य केवल इतना ही है कि अर्थात्मक आगम के प्रणेता तीर्थकर हैं। तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वार्थसाक्षात्कारिता के कारण ही मागम प्रमाण माने गये हैं। प्राचार्य देववाचक ने आगमसाहित्य को अंग और अंगबाह्य, इन दो भागों में विभक्त किया है। अंगों की सूत्ररचना करने वाले गणधर हैं तो अंगबाह्य की सूत्ररचना स्थविर भगवन्तों के द्वारा की गई है। स्थविर सम्पूर्ण श्रुत-ज्ञानी चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी- दो प्रकार के होते हैं / अंग स्वतः प्रमाण रूप हैं, पर अंगबाह्य परतः प्रमाण रूप होते हैं / दश पूर्वधर नियमतः सम्यग्दर्शी होते हैं / उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में अंगविरोधी तथ्य नहीं होते, अतः वे प्रागम प्रमारए रूप माने जाते हैं / अंगबाह्य भागमों की सूची में जम्बूद्वीपप्रशप्ति का कालिक श्रत की सूची में आठवां स्थान है। जब प्रागमसाहित्य का अंग, उपांग, मूल और छेद रूप में वर्गीकरण हुआ तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति का उपांग में पांच स्थान रहा और इसे भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) सूत्र का उपांग माना गया है। भगवतीसूत्र के साथ प्रस्तुत उपांग का क्या सम्बन्ध है ? इसे किस कारण भगवती का उपांग कहा गया है ? यह शोधाथियों के लिये चिन्तनीय प्रश्न है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में एक अध्ययन है और सात वक्षस्कार हैं। यह पागम पूर्वाद और उत्तरार्द्ध इन दो भागों में विभक्त है / पूर्वाद वक्षस्कार हैं तो उत्तरार्द्ध में तीन वक्षस्कार हैं। वक्षस्कार शब्द यहां पर प्रकरण के अर्थ में व्यवहत हुमा है, पर वस्तुत: जम्बूद्वीप में इस नाम के प्रमुख पर्वत हैं, जिनका जैन भूगोल में अनेक दृष्टियों से महत्त्व प्रतिपादित है। जम्बूद्वीप से सम्बद्ध विवेचन के सन्दर्भ में ग्रन्थकार प्रकरण का अवबोध कराने के लिए ही वक्षस्कार शब्द का प्रयोग करते हैं। जम्बूद्वीपप्राप्ति के मूल पाठ का श्लोक-प्रमाण 4146 है। 178 गद्य सूत्र हैं और 52 पद्य सूत्र हैं। जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग दूसरे में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को 6 ठा उपांग लिखा है। जब भागमों का वर्गीकरण अनुयोग की दृष्टि से किया गया तो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति को गणितानुयोग में सम्मिलित किया गया, पर गणितानुयोग के साथ ही उसमें धर्मकथानुयोग प्रादि भी हैं। मिथिला : एक परिचय जम्बूद्वीपप्राप्ति का प्रारम्भ मिथिला नगरी के बर्णन से हुया है, जहां पर श्रमण भगवान महावीर अपने अन्तेवासियों के साथ पधारे हुए हैं। उस समय वहाँ का अधिपति राजा जितशत्रु था। बृहत्कल्पभाष्य' में साढे पच्चीस मार्य क्षेत्रों का वर्णन है। उसमें मिथिला का भी वर्णन है। मिथिला विदेह जनपद की राजधानी थी। विदेह राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय, दक्षिण में गंगा, पश्चिम में गंडकी और पूर्व में महीनदी तक 1. बृहत्कल्पभाष्य 1. 3275-89 2. (क) महाभारत वनपर्व 254 (ख) महावस्तु III, 172 (ग) दिव्यावदान पृ. 424 [18] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org