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________________ चतुर्थ वक्षस्कार] [197 हुए है। वह दो ओर से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है और पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। वह दो सौ योजन ऊँचा है, 50 योजन भूमिगत है---जमीन में गहरा गड़ा है। वह 421010 योजन चौड़ा है। उसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 6276 // योजन लम्बी है। उत्तर में उसकी जीवा पूर्व-पश्चिम लम्बी है / वह लवणसमुद्र का दो ओर से स्पर्श करती है। वह अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श करती है। वह कुछ अधिक 539316 योजन लम्बी है। दक्षिण में उसका धन पृष्ठ है, जिसकी परिधि 5726360 योजन है। वह रुचकसदृश आकार लिये हुए है, सर्वथा रत्नमय है, स्वच्छ है। अपने दोनों ओर वह दो पद्मवरवेदिकाओं तथा दो वनखण्डों से घिरा हुआ है। महाहिमवान वर्षधर पर्वत के ऊपर अत्यन्त समतल तथा रमणीय भूमिभाग है। वह विविध प्रकार के पंचरंगे रत्नों तथा तृणों से सुशोभित है / वहाँ देव-देवियाँ निवास करते हैं। महापद्मद्रह ___67. महाहिमवंतस्स णं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महापउमद्दहे णामं दहे पण्णत्ते / दो जोअणसहस्साई आयामेणं, एग जोअणसहस्सं विक्खंभेणं, दस जोप्रणाई उव्वेहेणं, अच्छे रययामयकूले एवं पायामविक्खंभविहूणा जा चेव पउमद्दहस्स वत्तव्वया सा चेव अव्वा / पउमप्पमाणं दो जोअणाई अट्ठो जाय महापउमद्दहवण्णाभाई हिरी प्र इत्थ देवी जाव पलिओवमट्टिइया परिवसइ / से एएणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ, अदुत्तरं च णं गोयमा! महापउमद्दहस्स सासए णामधिज्जे पण्णत्ते जणं कयाइ णासी 3 / तस्स णं महापउमद्दहस्स दक्खिणिल्लेणं तोरणेणं रोहिया महाणई पवढा समाणी सोलस पंचुत्तरे जोअणसए पंच य एगूणवीसइभाए जोपणस्स दाहिणाभिमुही पवएणं गंता महया घउमुहपवित्तिएणं मुत्तावलिहारसंठिएणं साइरेगदोजोअणसइएणं पवाएणं पवडइ। रोहिआ णं महाणई जनो पवडइ एत्थ णं महं एगा जिन्भिया पणत्ता। सा णं जिभिया जोअणं आयामेणं, अद्धतेरसजोषणाई विक्खंभेणं, कोसं बाहल्लेणं, मगरमुहविउट्टसंठाणसंठिया, सव्ववइरामई, अच्छा। __ रोहिआ णं महाणई जहि पवडइ एस्थ णं महं एगे रोहिअप्पवायकुडे णामं कुडे पण्णत्ते / सवीसं जोअणसयं आयामविवखंभेणं पण्णत्तं तिणि प्रसीए जोअणसए किंचि विसेसूणे परिक्खेवेणं, दस जोप्रणाइं उन्हेणं, अच्छे, सण्हे, सो चेव वण्णो / वइरतले, वट्टे, समतोरे जाव तोरणा / तस्स णं रोहिअप्पवायकुण्डस्स बहुज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे रोहिनदीवे णामं दीवे पण्णत्ते / सोलस जोश्रणाई आयामविवखंभेणं, साइरेगाइं पण्णासं जोअणाई परिक्खेवेणं, दो कोसे ऊसिए जलंताओ, सव्ववइरामए, अच्छे / से णं एगाए पउमवरवेइमाए एगेण य वणसंडेणं सव्वप्रो समंता संपरिविखत्ते / रोहिनदीवस्स णं दीवस्स उम्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एस्थ णं महं एगे भवणे पण्णत्ते। कोसं आयामेणं, सेसं तं चेव पमाणं च अट्ठो अभाणिअव्वो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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