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________________ प्रथम वक्षस्कार] [25 (अपने पूर्वी किनारे से पूर्वी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है तथा पश्चिमी किनारे से पश्चिमी लवणसमुद्र का स्पर्श किये हुए है ) / इसकी लम्बाई कुछ कम 144711 योजन है।। उसकी धनुष्य-पीठिका दक्षिण में 14528, योजन है / यह प्रतिपादन परिक्षेप-परिधि की अपेक्षा से है। भगवन् ! उत्तरार्ध भरतक्षेत्र का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उसका भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वह मुरज या ढोलक के ऊपरी भाग जैसा समतल है, कृत्रिम तथा अकृत्रिम मणियों से सुशोभित है। भगवन् ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा है ? गौतम ! उत्तरार्ध भरत में मनुष्यों का संहनन, (संस्थान, ऊँचाई, आयुष्य बहुत प्रकार का है / वे बहुत वर्षों का आयुष्य भोगते हैं / आयुष्य भोगकर कई नरकगति में, कई तिर्यचगति में, कई मनुष्यगति में, कई देवगति में जाते हैं, कई) सिद्ध, (बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत्त) होते हैं, समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। ऋषभकट 23. कहि णं भंते ! जंबुद्दोवे दीवे उत्तरभरहे वासे उसभकूडे णामं पव्वए पण्णत्ते? गोयमा ! गंगाकुडस्स पच्चस्थिमेणं, सिंधुकुडस्स पुरस्थिमेणं, चुल्लहिमवंतस्स वासहरपग्वयस्स दाहिणिल्ले णितंबे, एत्थ णं जंबुद्दीवे दोवे उत्तरढभरहे बासे उसहकूडे णामं पम्वए पण्णत्ते-- अट्ठ जोगणाई उड्ड उच्चत्तेणं, दो जोषणाइं उन्हेणं, मूले अट्ठ जोअणाई विक्खंभेणं, मज्झे छ जोअणाई विक्खंभेणं, उरि चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाइं पणवीसं जोअणाई परिक्खेवेणं, मज्झे साइरेगाई अट्ठारस जोअणाई परिक्खेवेणं, उरि साइरेगाइं दुवालस जोषणाई परिक्खेवेणं' / मूले वित्थिण्णे, मज्झे संक्खित्ते, उपि तणुए, गोपुच्छसंठाणसंठिए, सव्वजंबूणयामए, अच्छे, सण्हे, जाव पडिलवे। से गं एगाए पउमवरवेइमाए तहेव (एगेण य वणसंडेण सन्चओ समंता संपरिक्खित्ते। उसहफूडस्स णं उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते / से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाव विहरंति / तस्स गं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते) कोसं पायामेणं, अद्धकोसं विक्खंभेणं, देसऊणं कोसं उड्ड उच्चत्तेणं, अट्ठो तहेव, उप्पलाणि, पउमाणि (सहस्सपत्ताई, सयसहस्सपत्ताई-उसहकूडप्पभाई, उसहकूडवण्णाई)। उसभे अ एत्थ देवे महिजोए जाव दाहिणणं रायहाणी तहेव मंदरस्स पव्वयस्स जहा विजयस्स अविसेसियं / 1. पाठान्तरम्—मूले बारस जोषणाई विक्खंभेणं, मज्झे अट्ठ जोगणाइं विखंभेणं, उप्पि चत्तारि जोषणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाई सत्तत्तीसं जोअणाई परिवखेवेणं, मज्झे साइरेगाई पणवीस जोप्रणाई परिक्खेवेणं, उप्पि साइरेगाइं बारस जोषणाई परिक्खेवेणं / 2. देखें सूत्र संख्या 4 3. देखें सूत्र संख्या 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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