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________________ 338] जिम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र गोयमा ! अंतो णं माणुसुत्तरस्स पव्वयस्स जे चन्दिमसूरिप्र-(गहगणणक्खत्त)-ताराहवे ते नं देवा णो उद्धोववण्णगा णो कप्पोववण्णगा, विमाणोववण्णगा, चारोववण्णगा, जो चारदुिईमा, गइरइआ गइसमावण्णगा। ___ उद्धीमुहकलंबुनापुटफसंठाणसंठिएहि, जोअणसाहस्सिएहि तावखेहि साहस्सिाहि वेउरिवप्राहिं वाहिरहिं परिसाहिं महयाहयणगीयवाइअतंतीतलतालतुडिअघणमुइंगपडुप्पवाइमरवेणं दिव्वाइं भोगभोगाइं भुजमाणा महया उक्किट्ठसीहणायबोलकलकलरवेणं अच्छं पव्वयरायं पयाहिणावत्तमण्डलचारं मेरु अणुपरिप्रति 14 / / [173] भगवन् ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र एवं तारे—ये ज्योतिष्क देव क्या ऊवोपपन्न हैं—सौधर्म आदि बारह कल्पों से ऊपर ग्रे वेयक तथा अनुत्तर विमानों में उत्पन्न हैं- क्या कल्पातीत हैं ? क्या वे कल्पोपपन्न हैं-ज्योष्तिक देव-सम्बद्ध विमानों में उत्पन्न हैं ? क्या वे चारोपपन्न हैं-मण्डल गतिपूर्वक परिभ्रमण से युक्त हैं ? क्या वे चारस्थितिक गत्यभावयुक्त हैं—परिभ्रमणरहित हैं ? क्या वे गतिरतिक हैं—गति में रति-आसक्ति या प्रीति लिये हैं ? क्या गति समापन्न हैंगतियुक्त हैं ? गौतम ! मानुषोत्तर पर्वतवर्ती चन्द्र, सूर्य, (ग्रह, नक्षत्र) तारे-ज्योतिष्क देव ऊोपपन्न नहीं हैं, कल्पोपपन्न नहीं हैं / वे विमानोत्पन्न हैं, चारोपपन्न हैं, चारस्थितिक नहीं हैं, गतिरतिक हैं, गतिसमापन्न हैं। ऊर्ध्वमुखी कदम्ब पुष्प के आकार में संस्थित सहस्रों योजनपर्यन्त चन्द्रसूर्यापेक्षया तापक्षेत्र युक्त, वैक्रियलब्धियुक्त-नाना प्रकार के विकुर्वितरूप धारण करने में सक्षम, नाटय, गीत, वादन आदि में निपुणता के कारण आभियोगिक कर्म करने में तत्पर, सहस्रों बाह्य परिषदों से संपरिक्त वे ज्योतिष्क देव नाटय-गीत-वादन रूप त्रिविध संगीतोपक्रम में जोर जोर से बजाये जाते तन्त्री-तल-तालश्रुटित-घन-मृदंग-इन वाद्यों से उत्पन्न मधुर ध्वनि के साथ दिव्य भोग भोगते हुए, उच्च स्वर से सिंहनाद करते हुए, मुंह पर हाथ लगाकर जोर से पूत्कार करते हुए सीटी की ज्यों ध्वनि करते हुए, कलकल शब्द करते हुए अच्छ-जाम्बूनद जातीय स्वर्णयुक्त तथा रत्नबहुल होने से अतीव निर्मल, उज्ज्वल मेरु पर्वत की प्रदक्षिणावर्त मण्डल गति द्वारा प्रदक्षिणा करते रहते हैं। विवेचन--मानुषोत्तर पर्वत-मनुष्यों की उत्पत्ति, स्थिति तथा मरण आदि मानुषोत्तर पर्वत से पहले पहले होते हैं, आगे नहीं होते, इसलिए उसे मानुषोत्तर कहा जाता है। विद्या आदि विशिष्ट शक्ति के अभाव में मनुष्य उसे लांघ नहीं सकते, इसलिए भी वह मानुषोत्तर कहा जाता है। प्रदक्षिणावर्त मण्डल ___ सब दिशाओं तथा विदिशानों में परिभ्रमण करते हुए चन्द्र आदि के जिस मण्डलपरिभ्रमण रूप आवर्तन में मेरु दक्षिण में रहता है, वह प्रदक्षिणावर्त मण्डल कहा जाता है / इन्द्रच्यवन : अन्तरिम व्यवस्था 174. तेसि णं भंते ! देवाणं जाहे इंदे चुए भवइ, से कहमियाणि पकरेंति ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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