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________________ चतुर्थ बक्षस्कार [189 उस गंगाप्रपातकुण्ड के ठीक बीच में गंगाद्वीप नामक एक विशाल द्वीप है / वह पाठ योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि कुछ अधिक पच्चीस योजन है। वह जल से ऊपर दो कोस ऊँचा उठा हुआ है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ एवं सुकोमल है / वह एक पद्मवरवेदिका तथा एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है / उनका वर्णन पूर्ववत् है / __गंगाद्वीप पर बहुत समतल, सुन्दर भूमिभाग है। उसके ठीक बीच में गंगा देवी का विशाल भवन है। वह एक कोस लम्बा, प्राधा कोस चौड़ा तथा कुछ कम एक कोस ऊँचा है। वह सैकड़ों खंभों पर अवस्थित है / उसके ठीक बीच में एक मणिपीठिका है। उस पर शय्या है। परम ऋद्धिशालिनी गंगादेवी का आवास-स्थान होने से वह द्वीप गंगाद्वीप कहा जाता है, अथवा यह उसका शाश्वत नाम है-सदा से चला आता है। उस गंगाप्रपातकुण्ड के दक्षिणी तोरण से गंगा महानदी आगे निकलती है। वह उत्तरार्ध भरतक्षेत्र की ओर आगे बढ़ती है तब सात हजार नदियाँ उसमें प्रा मिलती हैं। वह उनसे आपूर्ण होकर खण्डप्रपात गुफा होती हुई, वैताढय पर्वत को चीरती हुई-पार करती हुई दक्षिणार्ध भरतक्षेत्र की ओर जाती है। वह दक्षिणार्ध भरत के ठीक बीच से बहती हुई पूर्व की ओर मुड़ती है। फिर चौदह हजार नदियों के परिवार से युक्त होकर वह (गंगा महानदी) जम्बूद्वीप की जगती को दीर्ण कर-चीर कर पूर्वी-पूर्व दिग्वर्ती लवणसमुद्र में मिल जाती है। गंगा महानदी का प्रवह-उद्गमस्रोत-जिस स्थान से वह निर्गत होती है, वहाँ उसका प्रवाह एक कोस अधिक छः योजन का विस्तार-चौड़ाई लिये हुए है। वह प्राधा कोस गहरा है। तत्पश्चात् वह महानदी क्रमशः मात्रा में प्रमाण में विस्तार में बढ़ती जाती है। जब समुद्र में मिलती है, उस समय उसकी चौड़ाई साढ़े बासठ योजन होती है, गहराई एक योजन एक कोस--- सवा योजन होती है। वह दोनों ओर दो पद्मवरवेदिकाओं तथा वनखण्डों द्वारा संपरिवृत है / वेदिकाओं एवं वनखण्डों का वर्णन पूर्ववत् है / गंगा महानदी के अनुरूप ही सिन्धु महानदी का पायाम-विस्तार है। इतना अन्तर हैसिन्धु महानदी उस पद्मद्रह के पश्चिम दिग्वर्ती तोरण से निकलती है, पश्चिम दिशा की ओर बहती है, सिन्ध्वावर्त कूट से मुड़कर दक्षिणाभिमुख होती हुई बहती है। आगे सिन्धुप्रपातकुण्ड, सिन्धुद्वीप आदि का वर्णन गंगाप्रपातकण्ड, गंगाद्वीप आदि के सदश है। फिर नीचे तिमिस गुफा से होती हुई वह वैताढ्य पर्वत को चीरकर पश्चिम की ओर मुड़ती है। उसमें वहाँ चौदह हजार नदियां मिलती हैं। फिर वह जगती को दीर्ण करती हुई पश्चिमी लवणसमुद्र में जाकर मिलती है। बाकी सारा वर्णन गंगा महानदी के अनुरूप है। उस पद्मद्रह के उत्तरी तोरण से रोहितांशा नामक महानदी निकलती है। वह पर्वत पर उत्तर में 276 योजन बहती है, आगे बढ़ती है। घड़े के मुंह से निकलते हुए पानी की ज्यों जोर से शब्द करती हुई वेगपूर्वक, मोतियों के हार के सदृश आकार में पर्वत-शिखर से प्रपात तक कुछ अधिक एक सौ योजन परिमित प्रवाह के रूप में प्रपात में गिरती है। रोहितांशा महानदी जहाँ गिरती है, वहाँ एक जिबिका-जिह्वासदृश प्राकृतियुक्त प्रणालिका है / उसका आयाम एक योजन है, विस्तार साढ़े बारह योजन है। उसका मोटापन एक कोस है / उसका आकार मगरमच्छ के खुले मुख के आकार जैसा है / वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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