________________ 291 बिनाप्रति एगे वइरामए अंकुसे, एत्थ णं महं एगे कुम्भिक्के मुत्तादामे, से णं अहिं तवधुच्चत्तप्पमाणमित्तेहि चउहि अद्धकुम्भिकेहि मुत्तादामेहिं सम्वनो समन्ता संपरिक्खिते, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा, सुवण्णपयरगमण्डिा , गाणामणिरयणविविहहारवहारउवसोभिप्रा, समुदया ईसि अण्णमण्णमसंपत्ता पुन्वाइएहि वाएहि मन्वं एइज्जमाणा 2 (उरालेणं, मन्नणं, मणहरेणं, कण्णमण.) निन्दहकरेणं सद्देणं ते पएसे प्रापूरेमाणा 2 (सिरीए) अईव उवसोमेमाणा 2 चिट्ठति ति। तस्स णं सीहासणस्स अवरत्तरेणं, उत्तरेणं, उत्तरपुरस्थिमेणं एत्य गं सक्कस्स चउरासीए सामाणिप्रसाहस्सोणं, चउरासोइ भद्दासणसाहस्सोमो, पुरस्थिमेणं अटुण्हं अगमहिसोणं एवं वाहिनपुरस्थिमेणं अन्भितर-परिसाए दुवालसण्हं वेवसाहस्सोणं, दाहिणेणं मज्झिमाए चउपसण्हं वेवसाहसीनं, दाहिणपच्चस्थिमेणं बाहिरपरिसाए सोलसण्हं देवसाहस्सीणं, पञ्चत्थिमेणं सत्तण्हं प्रणिआहिवईगति / तए णं तस्स सोहासणस्स चउद्दिसि चउण्हं चउरासीणं प्रायरक्सदेवसाहस्सोणं एबमाई विभासिमवं सूरिप्राभगमेणं जाव पच्चप्पिणन्ति त्ति / [146] देवेन्द्र, देवराज शक्र द्वारा यों कहे जाने पर प्रादेश दिये जाने पर पालक नामक देव हर्षित एवं परितुष्ट होता है। वह वैक्रिय समुद्घात द्वारा यान-विमान की विकुर्वणा करता है। उसकी तीन दिशाओं में तीन-तीन सीढ़ियों की रचना करता है। उनके मागे तोरणद्वारों की रचना करता है / उनका वर्णन पूर्वानुरूप है। उस यान-विमान के भीतर बहुत समतल एवं रमणीय भूमि-भाग है। वह प्रालिंग-पुष्करमुरज या ढोलक के ऊपरी भाग-चर्मपुट तथा शंकुसदृश बड़े-बड़े कीले ठोक कर, खींचकर समान किये गये चीते आदि के चर्म जैसा समतल और सुन्दर है। वह भूमिभाग पावर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणि, प्रश्रेणि, स्वस्तिक, वर्द्धमान, पुष्यमाणव, मत्स्य के अंडे, मगर के अंडे, जार, मार, पुष्पावलि, कमलपत्र, सागर-तरंग, वासन्तीलता एवं पद्मलता के चित्रांकन से युक्त, आभायुक्त, प्रभायुक्त, रश्मियुक्त, उद्योतयुक्त नानाविध पंचरंगी मणियों से सुशोभित है। जैसा कि राजप्रश्नीय सूत्र में वर्णन है', उन मणियों के अपने-अपने विशिष्ट वर्ण, गन्ध एवं स्पर्श हैं। ___ उस भूमिभाग के ठीक बीच में एक प्रेक्षागृह-मण्डप है / वह सैकड़ों खंभों पर टिका है, सुन्दर है। उसका वर्णन पूर्ववत् है। उस प्रेक्षामण्डप के ऊपर का भाग पमलता आदि के चित्रण से युक्त है, सर्वथा तपनीय-स्वर्णमय है, चित्त को प्रसन्न करने वाला है, दर्शनीय है, अभिरूप-मन को अपने में रमा लेने वाला है तथा प्रतिरूप-~-मन में बस जाने वाला है। उस मण्डप के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचोंबीच एक मणिपीठिका है। वह आठ योजन लम्बी-चौड़ी तथा चार योजन मोटी है, सर्वथा मणिमय है / उसका वर्णन पूर्ववत् है / ___ उसके ऊपर एक विशाल सिंहासन है। उसका वर्णन भी पूर्वानुरूप है। उसके ऊपर एक सर्वरत्नमय, वृहत् विजयदुष्य--विजय-वस्त्र है। उसका वर्णन पूर्वानुगत है। उसके बीच में एक वज्ररत्नमय-हीरकमय अंकुश है। वहाँ एक कुम्भिका-प्रमाण मोतियों की बृहत् माला है। वह 1. देखिए राजप्रश्नीयसूत्र पृ. 26 (मागम प्र. स.च्यावर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org