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________________ और महानदी ये सात नाम मिलते हैं। किन्तु सिन्धु का नाम नहीं आया है। जबकि अन्य स्थानों पर सप्त सिन्धव में सिन्धु का नाम प्रमुख है। 528 मेगस्थनीज और अन्य ग्रेकोलटिन लेखकों की दृष्टि से सिन्धु नदी एक अद्वितीय नदी थी। गंगा के अतिरिक्त अन्य कोई नदी उसके समान नहीं थी। ऋग्वेद में कहा है कि सिन्धु नदी का प्रवाह सबसे तेज है / 226 यह पृथ्वी की प्रतापशील चट्टानों पर से प्रवाहित होती थी और गतिशील सरिताओं में सबसे अग्रणी थी। ऋग्वेद के नदीस्तुतिसूक्त में सिन्धु की अनेक सहायक नदियों का वर्णन है।२३. चुल्ल हिमवन्त पर्वत पर ग्यारह शिखर हैं। उन शिखरों का भी विस्तार से निरूपण किया है / हैमवत क्षेत्र का और उसमें शब्दापाती नामक वृत्तवैताढ्य पर्वत का भी वर्णन है। महाहिमवन्त नामक पर्वत का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि उस पर्वत पर एक महापद्म नामक सरोवर है / उस सरोवर का भी निरूपण हुआ है। हरिवर्ष, निषध पर्वत और उस पर्वत पर तिगिछ नामक एक सुन्दर सरोवर है। महाविदेह क्षेत्र का भी वर्णन है। जहाँ पर सदा सर्वदा तीर्थंकर प्रभ विराजते हैं, उनकी पावन प्रवचन धारा सतत प्रवहमान रहती है। महाविदेह क्षेत्र में से हर समय जीव मोक्ष में जा सकता है। इसके बीचों-बीच मेरु पर्वत है। जिससे महाविदेह क्षेत्र के दो विभाग हो गये हैं--एक पूर्व महाविदेह और एक पश्चिम महाविदेह / पूर्व महाविदेह के मध्य में शोता नदी और पश्चिम महाविदेह के मध्य में शीतोदा नदी आ जाने से एक-एक विभाग के दो-दो उपविभाग हो गये हैं / इस प्रकार महाविदेह क्षेत्र के चार विभाग हैं। इन चारों विभागों में आठ-आठ विजय हैं, अतः महाविदेह क्षेत्र में 844 = 32 विजय हैं / गन्धमादन पर्वत, उत्तर कुरु में यमक नामक पर्वत, जम्बूवृक्ष, महाविदेह क्षेत्र में माल्यवन्त पर्वत, कच्छ नामक विजय, चित्रकट नामक अन्य विजय, देवकुरु, मेरुपर्वत, नन्दनवन, सौमनस वन आदि वनों के वर्णनों के साथ नील पर्वत, रम्यक हिरण्यवत और ऐरावत आदि क्षेत्रों का भी इस बक्षस्कार में बहुत विस्तार से वर्णन किया है / यह वक्षस्कार अन्य वक्षस्कारों की अपेक्षा बड़ा है / यह वर्णन मूल पाठ में सविस्तार दिया गया है / अतः प्रबुद्ध पाठक इसका स्वाध्याय कर अपने अनुभवों में वृद्धि करें / जैन दृष्टि से जम्बूद्वीप में नदी, पर्वत और क्षेत्र आदि कहाँ-कहाँ पर हैं इसका दिग्दर्शन इस वक्षस्कार में हुआ है। पांचवां वक्षस्कार पाँच वक्षस्कार में जिनजन्माभिषेक का वर्णन है / तीर्थंकरों का हर एक महत्त्वपूर्ण कार्य कल्याणक कहलाता है। स्थानांग, कल्पसूत्र आदि में तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणकों का उल्लेख है। इनमें प्रमुख कल्याणक जन्मकल्याण है। तीर्थ करों का जन्मोत्सव मनाने के लिये 56 महत्तरिका दिशाकुमारियाँ और 64 इन्द्र आते हैं / सर्वप्रथम अधोलोक में अवस्थित भोमंकरा आदि पाठ दिशाकमारियाँ सपरिवार आकर तीर्थकर की माता को नमन करती हैं और यह नम्र निवेदन करती हैं कि हम जन्मोत्सव मनाने के लिये आई हैं / आप भयभीत न बनें / वे धूल और दुरभि गन्ध को दूर कर एक योजन तक सम्पूर्ण वातावरण को परम सुगन्धमय बनाती हैं और गीत गाती हुई तीर्थकर की माँ के चारों ओर खड़ी हो जाती हैं। तत्पश्चात ऊध्र्वलोक में रहने वाली मेघंकरा आदि दिककुमारियाँ सुगन्धित जल की वृष्टि करती हैं और दिव्य धूप से एक योजन के परिमण्डल को देवों के आगमन योग्य बना देती हैं। मंगल गीत गाती हए तीर्थकर की 228. गङ्गा यमुना चैव गोदा चैव सरस्वती / नर्मदा सिन्धु कावेरी जलेस्मिन् सन्निधि कुरु॥ 229. ऋग्वेद 10, 75 230. वि० च० लाहा, रीवसं प्राव इंडिया, पृ. 9-10 / [4] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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