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________________ 262] [जमीपप्राप्तिसूत्र [136] भगवन् ! पण्डकवन में कितनी अभिषेक शिलाएँ बतलाई गई हैं ? गौतम ! वहाँ चार अभिषेक शिलाएँ बतलाई गई हैं-१. पाण्डुशिला, 2. पाण्डुकम्बलशिला, 3. रक्तशिला तथा 4. रक्तकम्बलशिला। भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के पूर्व में पण्डक वन के पूर्वी छोर पर पाण्डुशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी तथा पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका आकार अर्ध चन्द्र के आकार-जैसा है / वह 500 योजन लम्बी, 250 योजन चौड़ी तथा 4 योजन मोटी है। वह सर्वथा स्वर्णमय है, स्वच्छ है, पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड द्वारा चारों ओर से संपरिवृत है / विस्तृत वर्णन पूर्वानुरूप है। उस पाण्डुशिला के चारों ओर चारों दिशाओं में तीन तीन सीढ़ियाँ बनी हैं। तोरणपर्यन्त उनका वर्णन पूर्ववत् है। उस पाण्डुशिला पर बहुत समतल एवं सुन्दर भूमिभाग बतलाया गया है। उस पर (जहाँ-तहाँ बहुत से) देव आश्रय लेते हैं। उस बहुत समतल, रमणीय भूमिभाग के बीच में उत्तर तथा दक्षिण में दो सिंहासन बतलाये गये हैं। वे 500 धनुष लम्बे-चौड़े और 250 धनुष ऊँचे हैं / विजयदूष्यवजित-विजय नामक वस्त्र के अतिरिक्त उसका सिंहासन पर्यन्त वर्णन पूर्ववत् है / वहाँ जो उत्तर दिग्वर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देव-देवियां कच्छ आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थकरों का अभिषेक करते हैं। ___ वहाँ जो दक्षिण दिग्वर्ती सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क) एवं वैमानिक देव-देवियां वत्स आदि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक करते हैं। ___ भगवन् ! पण्डक वन में पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? गौतम ! मन्दर पर्वत की चूलिका के दक्षिण में, पण्डक वन के दक्षिणी छोर पर पाण्डुकम्बलशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बी तथा उत्तर-दक्षिण चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है / उसके बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग के बीचों-बीच एक विशाल सिंहासन बतलाया गया है / उसका वर्णन पूर्ववत् है / वहाँ भवनपति, (वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) देव-देवियों द्वारा भरतक्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। भगवन् ! पण्डक वन में रक्तशिला नामक शिला कहाँ बतलाई गई है ? _गौतम ! मन्दर पर्वत की चलिका के पश्चिम में, पण्डक बन के पश्चिमी छोर पर रक्तशिला नामक शिला बतलाई गई है। वह उत्तर-दक्षिण लम्बी है, पूर्व-पश्चिम चौड़ी है। उसका प्रमाण, विस्तार पूर्ववत् है। वह सर्वथा तपनीय स्वर्णमय है, स्वच्छ है। उसके उत्तर-दक्षिण दो सिंहासन बतलाये गये हैं। उनमें जो दक्षिणी सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देव-देवियों द्वारा पक्ष्मादिक विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। वहाँ जो उत्तरी सिंहासन है, वहाँ बहुत से भवनपति आदि देवों द्वारा वप्र प्रादि विजयों में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभिषेक किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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