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________________ द्वितीय वक्षस्कार [47 (14) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गावीइ वा, महिसोइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हब्वमागच्छंति / (14) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में गाय, भैंस, अजा-बकरी, एडका–भेड़-ये सब पशु होते हैं ? गौतम ! ये पशु होते हैं किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं आते / (15) अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे आसाइ वा, हत्थीइ वा, उट्टाइ वा, गोणाइ वा, गवयाइ वा, अयाइ वा, एलगाइ वा, पसयाइ वा, मिश्राइ वा, वराहाइ वा, रुरुत्ति वा, सरभाइ वा, चमराइ बा, सबराइ वा, कुरंगाइ वा, गोकण्णाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / (15) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में घोड़े, हाथी, ऊँट, गाय, गवय बनैली गाय, बकरी, भेड़, प्रश्रय--दो खुरों के जंगली पशु, मृग हरिण, वराह-सूअर, रुरु-मृगविशेष, शरभअष्टापद, चँवर–जंगली गायें, जिनकी पूछों के बालों से चॅवर बनते हैं, शबर—सांभर, जिनके सींगों से अनेक शृगात्मक शाखाएँ निकलती हैं, कुरंग मृग-विशेष तथा गोकर्ण--मृग-विशेष-ये होते हैं ? गौतम ! ये होते हैं, किन्तु उन मनुष्यों के उपयोग में नहीं पाते। (16) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे सीहाइ वा, वग्याइ वा, विगदी विगअच्छतरच्छसिआलबिडालसुणगकोकंतियकोलसुणगाइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं प्राबाहं वा वाबाहं वा छविच्छेअं वा उप्पायेति, पगइभया णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो! (16) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में सिंह, व्याघ्र बाघ, वृक-भेड़िया, द्वीपिकचीते, ऋच्छ—भाल, तरक्ष—मगभक्षी व्याघ्र विशेष, शृगाल-गीदड, विडाल----बिलाव, शुनक-कुत्ते, कोकन्तिक-लोमड़ी, कोलशुनक-जंगली कुत्ते या सूअर—ये सब होते हैं ? आयुष्मन् श्रमण गौतम ! ये सब होते हैं, पर वे उन मनुष्यों को आबाधा-ईषद् बाधा, जरा भी बाधा, व्याबाधा-विशेष बाधा नहीं पहुंचाते और न उनका छविच्छेद–न अंग-भंग ही करते हैं अथवा न उनकी चमड़ी नोचकर उन्हें विकृत बना देते हैं। क्योंकि वे श्वापद-जंगली जानवर प्रकृति से भद्र होते हैं। (17) अस्थि णं भंते ! तोसे समाए भरहे वासे सालीइ वा, बीहिगोहूमजवजवजवाइ वा, कलायमसूर-मग्गमासतिलकुलत्यणिप्फावआलिसंदगप्रयसिकुसुभकोदवकंगुवरगरालगसणसरिसवमूलग - बोप्राइ वा ? हंता अस्थि, णो चेव णं तेसि मणुआणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति / (17) भगवन् ! क्या उस समय भरतक्षेत्र में शाली-कलम जाति के चावल, व्रीहि ब्रीहि जाति के चावल, गोधूम-गेहूँ, यव---जौ, यवयव-विशेष जाति के जौ, कलाय-गोल चने-मटर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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