________________ 90] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र पताका, चक्र, लांगल-हल, मूसल, रथ, स्वस्तिक, अंकुश, चन्द्र, सूर्य, अग्नि, यूप-यज्ञ-स्तंभ, समुद्र, इन्द्रध्वज, कमल, पृथ्वी, हाथी, सिंहासन, दण्ड, कच्छप, उत्तम पर्वत, उत्तम अश्व, श्रेष्ठ मुकुट, कुण्डल, नन्दावर्त, धनुष, कुन्त-भाला, गागर--नारी-परिधान-विशेष---घाघरा, भवन, विमान प्रभृति पृथक्-पृथक् स्पष्ट रूप में अंकित अनेक सामुद्रिक शुभ लक्षण विद्यमान थे। उसके विशाल वक्षःस्थल पर ऊर्ध्वमुखी, सुकोमल, स्निग्ध, मृदु एवं प्रशस्त केश थे, जिनसे सहज रूप में श्रीवत्स का चिह्न-आकार निर्मित था। देश एवं क्षेत्र के अनुरूप उसका सुगठित, सुन्दर शरीर था / बाल-सूर्य की किरणों से उद्बोधित-विकसित उत्तम कमल के मध्यभाग के वर्ण जैसा उसका वर्ण था। उसका पृष्ठान्त---गुदा भाग घोड़े के पृष्ठान्त की ज्यों निरुपलिप्त-मल-त्याग के समय पूरीष से अलिप्त रहर था / उसके शरीर से पद्म, उत्पल, चमेली, मालती, जूही, चंपक, केसर तथा कस्तूरी के सदृश सुगंध आती थी। वह छत्तीस से कहीं अधिक प्रशस्त-उत्तम राजगुणों से अथवा प्रशस्त-शुभ राजोचित लक्षणों से युक्त था / वह अखण्डित-छत्र—अविच्छिन्न प्रभुत्व का स्वामी था। उसके मातृवंश तथा पितृवंश—दोनों निर्मल थे। अपने विशुद्ध कूलरूपी आकाश में वह पूर्णिमा के चन्द्र जैसा था। वह चन्द्र-सदृश सौम्य था, मन और प्रांखों के लिए आनन्दप्रद था। वह समुद्र के समान निश्चल-गंभीर तथा सुस्थिर था। वह कुबेर की ज्यों भोगोपभोग में द्रव्य का समुचित, प्रचुर व्यय करता था। वह युद्ध में सदैव अपराजित, परम विक्रमशाली था, उसके शत्रु नष्ट हो गये थे। यों वह सुखपूर्वक भरत क्षेत्र के राज्य का भोग करता था। चक्ररत्न की उत्पत्ति : अर्चा : महोत्सव 53. तए णं तस्स भरहस्स रण्णो अण्णया कयाइ पाउहघरसालाए दिवे चक्करयणे समुप्पज्जित्था। तए णं से प्राउहधरिए भरहस्स रण्णो आउहधरसालाए दिवं चक्करयणं समुप्पण्णं पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए, णदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणामेव दिन्वे चक्करयणे तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता करयल-(परिग्गहिप्रदसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि) कटु चक्करयणस्स पणामं करेइ, करेत्ता प्राउहधरसालानो पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणामेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणामेव भरहे राया, तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता करयल-जाव'-जएणं विजएणं बद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं वयासी–एवं खलु देवाणुप्पियाणं पाउहघरसालाए दिव्वे चक्करयणे समुप्पण्णे, तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं पियट्टयाए पियं णिवेएमि, पियं भे भयउ।" तए णं से भरहे राया तस्स पाउहधरियस्य अंतिए एयमट्ट सोच्चा णिसम्म हट्ठ-(तुट्ठचित्तमाणंदिए, शूदिए, पोइमणे, परम-) सोमणस्सिए, वियसियवरकमलणयणवयणे, पयलिनवरकडगतुडिअकेऊरमउडकुण्डलहारविरायंतरइअवच्छे, पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे, ससंभमं, तुरिअं, 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org