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________________ चतुर्थ बक्षस्कार [.269 से केण?णं भन्ते ! एवं बुच्चइ-हेरण्णवए वासे 2 ? गोयमा ! हेरण्णवए णं वासे हप्पीसिहरीहिं वासहरपवहिं दुहरो समवगूढे, णिच्चं हिरण्णं दलइ, णिच्चं हिरणं मुचइ, णिच्चं हिरण्णं पगासइ, हेरण्णवए अइत्थ देवे परिवसइ से एएण?णंति। [142] भगवन् ! जम्बुद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत क्षेत्र कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! रुक्मी नामक वर्षधर पर्वत के उत्तर में, शिखरी नामक वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, पूर्वी लवणसमुद्र के पश्चिम में तथा पश्चिमो लवणसमुद्र के पूर्व में जम्बूद्वीप के अन्तर्गत हैरण्यवत क्षेत्र बतलाया गया है। जैसा हैमवत का वर्णन है, वैसा ही हैरण्यवत क्षेत्र का समझना चाहिए। इतना अन्तर है-उसकी जीवा दक्षिण में है, धनुपृष्ठभाग उत्तर में है / बाकी का सारा वर्णन हैमवत-सदृश है। भगवन् ! हैरण्यवत क्षेत्र में माल्यवत्पर्याय नामक वृत्त वैताढय पर्वत कहाँ बतलाया गया है ? गौतम ! सुवर्णकूला महानदो के पश्चिम में, रूप्यकूला महानदी के पूर्व में हैरण्यवत क्षेत्र के बीचोंबीच माल्यवत्पर्याय नामक वृत वैताढय पर्वत बतलाया गया है। जैसा शब्दापाती वृत्त वैताढय पर्वत का वर्णन है, वैसा ही माल्यवत्पर्याय वृत वैताढ्य पर्वत का है। उस पर उस जैसे प्रभायुक्त, वर्णयुक्त, प्राभायुक्त उत्पल तथा पद्म आदि हैं। वहाँ परम ऋद्धिशाली, एक पल्योपम आयुष्ययुक्त प्रभास नामक देव निवास करता है। इन कारणों से वह माल्यवत्पर्याय वृत्त वैताढ्य कहा जाता है / राजधानी उत्तर में है। भगवन् ! हैरण्यवत क्षेत्र इस नाम से किस कारण कहा जाता है ? गौतम ! हैरण्यवत क्षेत्र रुक्मी तथा शिखरी नामक वर्षधर पर्वतों से दो ओर से घिरा हा है। वह नित्य हिरण्य-स्वर्ण देता है, नित्य स्वर्ण छोड़ता है, नित्य स्वर्ण प्रकाशित करता है, जो स्वर्णमय शिलापट्टक आदि के रूप में वहाँ यौगलिक मनुष्यों के शय्या, आसन आदि उपकरणों के रूप में उपयोग में आता है, वहाँ हैरण्यवत नामक देव निवास करता है, इसलिए वह हैरण्यवत क्षेत्र कहा जाता है। शिखरी वर्षधर पर्वत __143. कहि णं भन्ते ! जम्बुद्दीवे दोवे सिहरी णामं वासहरपब्बए पण्णत्त ? __ गोयमा ! हेरण्णवयस्स उत्तरेणं, एरावयस्स दाहिणणं, पुरथिमलवणसमुदस्स पच्चस्थिमेणं, पच्चत्थिमलवणसमुदस्स पुरस्थिमेणं, एवं जह चेव चुल्लहिमवन्तो तह चेव सिहरीवि, गवरं जीवा दाहिणणं, धणु उत्तरेणं, अवसिद्भुतं चेव / पुण्डरीए दहे, सुवण्णकूला महाणई दाहिणणं अव्वा जहा रोहिअंसा पुरस्थिमेणं गच्छइ, एवं जह चेव गंगासिन्धूनो तह चेव रत्तारत्तवईओ अव्वाश्रो पुरथिमेणं रत्ता पच्चस्थिमेण रत्तवई, अवसिट्ठतं चेव, [अवसेसं भाणिअव्वंति] / सिहरिम्मि णं भन्ते ! वासहरपव्वए कइ कडा पण्णत्ता ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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