________________ तृतीय वक्षस्कार] सात-पाठ कदम पीछे हटा, बायें घुटने को ऊँचा किया, वैसा कर (दाहिने घुटने को भूमि पर टिकाया, हाथ जोड़ते हुए, उन्हें मस्तक के चारों ओर घुमाते हुए, अंजलि बांधे, चक्ररत्न को प्रणाम किया / प्रणाम कर पायधशाला से निकला, निकलकर जहाँ बाहरी उपस्थानशाला--सभाभवन था, जहाँ सिंहासन था, वहाँ अाया, पाकर पूर्वाभिमुख हो सिंहासन पर विधिवत् बैठा / बैठकर अठारह श्रेणिप्रश्रेणि-सभी जाति-उपजाति के प्रजाजनों को बुलाया, बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहा देवानुप्रियो ! चक्ररत्न के उत्पन्न होने के उपलक्ष्य में तुम सब महान् विजय का संसूचक अष्ट दिवसीय महोत्सव प्रायोजित करो। (मैं उद्घोषित करता हूँ) 'इन दिनों राज्य में कोई भी क्रय-विक्रय आदि सम्बन्धी शुल्क, सम्पत्ति आदि पर प्रतिवर्ष लिया जाने वाला राज्य-कर नहीं लिया जायेगा। लभ्य-ग्रहण में किसी से यदि कुछ लेना है, उसमें खिचाव न किया जाए, जोर न दिया जाए, पादान-प्रदान का, नाप-जोख का क्रम बन्द रहे, राज्य के कर्मचारी, अधिकारी किसी के घर में प्रवेश न करें, दण्ड–यथापराध राजग्राह्य द्रव्य–जुर्माना, कुदण्ड–बड़े अपराध के लिए दंड रूप में लिया जाने वाला अल्प द्रव्य-थोड़ा जुर्माना-ये दोनों ही नहीं लिये जायेंगे / ऋण के सन्दर्भ में कोई विवाद न हो—राजकोष से धन लेकर ऋणी का ऋण चुका दिया जाए-ऋणी को ऋण-मुक्त कर दिया जाए। नृत्यांगनाओं के तालवाद्य-समन्वित नाटक, नृत्य आदि आयोजित कर समारोह को सुन्दर बनाया जाए, यथाविधि समुद्भावित मृदंग-निनाद से महोत्सव को गुंजा दिया जाए। नगरसज्जा में लगाई गई या पहनी गई मालाएँ कुम्हलाई हुई न हों, ताजे फूलों से बनी हों / यों प्रत्येक नगरवासी और जनपदवासी प्रमुदित हो पाठ दिन तक महोत्सव मनाएँ। मेरे आदेशानुरूप यह सब संपादित कर लिये जाने के बाद मुझे शीघ्र सूचित करें।' राजा भरत द्वारा यों कहे जाने पर वे अठारह श्रेणि-प्रश्रेणि के प्रजा-जन हर्षित हुए, विनयपूर्वक राजा का वचन शिरोधार्य किया। वैसा कर राजा भरत के पास से रवाना हुए, रवाना होकर उन्होंने राजा की आज्ञानुसार अष्ट दिवसीय महोत्सव की व्यवस्था की, करवाई। वैसा कर जहाँ राजा भरत था, वहाँ वापस लौटे, वापस लौटकर उन्हें निवेदित किया कि आपकी आज्ञानुसार सब व्यवस्था की जा चुकी है। भरत का मागध तीर्थाभिमुख प्रयाण 57. तए णं से दिवे चक्करयणे प्रवाहिश्राए महामहिमाए निव्वत्ताए समाणीए पाउहघरसालानो पडिणिक्खमइ 2 तर अंतलिक्खपडिवण्णे, जक्खसहस्स-संपरिबुडे, दिव्वतुडिअसहसण्णिणाएणं आपरेते चेव अंबरतलं विणीआए रायहाणीए मज्झमझेणं णिग्गच्छइ 2 ता गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिमं दिसि मागहतित्थाभिमुहे पयाते यावि होत्था। ___ तए णं से भरहे राया तं दिव्वं चक्करयणं गंगाए महाणईए दाहिणिल्लेणं कूलेणं पुरथिमं दिसि मागहतित्थाभिमुहं पयातं पासइ 2 ता हट्ठतुट्ठ-(चित्तमाणदिए, णदिए, पीइमणे, परमसोमणस्सिए, हरिसवसविसप्यमाण-) हियए कोडुबिअपुरिसे सद्दावेइ 2 ता एवं वयासी-- खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ ! भाभिसेक्कं हस्थिरयणं पडिकप्पेह, हयगयरहपवरजोहकलिनं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org