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________________ द्वितीय वक्षस्कार] 55. व्याकरण 56. परनिराकरण 57. रन्धन 58. केश-बन्धन 56. वीणा-नाद 60. वितंडावाद 61. अंक-विचार 62. लोक-व्यवहार 63. अन्त्याक्षरिका 64. प्रश्न-प्रहेलिका। प्रस्तुत सूत्र में सौ शिल्पों का संकेत किया गया है / इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि शिल्प के मूलतः 1. कुभकृत्-शिल्प—घट आदि बर्तन बनाने की कला, 2. चित्रकृत्-शिल्प-चित्रकला, 3. लोहकृत्-शिल्प--शस्त्र आदि लोहे की वस्तुएँ बनाने की कला, 4. तन्तुवाय-शिल्प-वस्त्र बुनने की कला तथा 5. नापित-शिल्प-क्षौरकर्म-कला—ये पाँच भेद हैं। प्रत्येक के बीस-बीस भेद माने गये हैं, यो सब मिलकर सौ होते हैं। साधना : केवल्य : संघसंपदा 38. उसमे गं अरहा कोसलिए संवच्छरसाहिअं चोवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए। जप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए मुडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभिई च गं उसमे अरहा कोसलिए णिच्चं वोसटकाए, चिअत्तदेहे जे केइ उबसग्गा उप्पज्जंति, तंजहा-दिव्या वा, (माणुसा वा, तिरिक्खजोणिआ वा,) पडिलोमा वा, अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वित्तण वा, (तयाए वा, छियाए वा, लयाए वा,) कसेण वा काए आउट्टज्जा; अणुलोमा वंदेज्ज वा (णमंसेज्ज वा, सक्कारेज्ज वा, सम्माणज्ज वा, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं) पज्जुवासेज्ज वा, ते सव्वे सम्म सहइ, (खमइ, तितिक्खइ,) अहिनासेइ।। तए णं से भगवं समणे जाए, ईरियासमिए, (भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए,) पारिट्ठावणिनासमिए, मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए, मणगुत्ते, (वयगुत्ते, कायगुत्ते, गुत्ते, गुत्तिदिए,) गुत्तबंभयारी, अकोहे, (अमाणे, अमाए,) अलोहे, संते, पसंते, उवसंते, परिणिव्वुडे, छिण्णसोए, निरुवलेवे, संखमिव निरंजणे, जच्चकणगं व जायस्वे, प्रादरिसपडिभागे इव पागडभाये, कुम्मो इव गुत्तिदिए, पुक्खरपत्तमिव निरुवलेवे, गगणमिव निरालंबणे, अणिले इव णिरालए, चंदो इव सोमदंसणे, सूरो इव तेअंसी, विहगो इव अपडिबद्धगामी, सागरो इव गंभीरे, मंदरो इव अकंपे, पुढवीविव सव्वफासविसहे, जीवो विव अप्पडिहयगइत्ति। ___णत्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थइ पडिबंधे। से पडिबंधे चउन्विहे भवइ, तंजहा-दव्वनो, खित्तो, कालओ, भावो। दवओ इह खलु माया मे, पिया मे, भाया मे, भगिणी मे, (भज्जा मे, पुत्ता मे, धूआ मे, णत्ता मे, सुहा मे, सहिसयणा मे,) संगंथसंथुप्रा मे, हिरण्यं मे, सुवणं मे, (कंसं मे, दूस मे, धणं मे,) उवगरणं मे; अहवा समासओ सच्चित्ते वा, अचित्त बा, मीसए वा, दव्वजाए। सेवं तस्स ण भवइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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