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________________ 88] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र दयपत्ते, सोमंकरे, सीमंधरे, खेमंकरे, खेमंधरे, मस्सिदे, जणवयपिया, जणवयपाले, जणवयपुरोहिए, सेउकरे, केउकरे, परपवरे, पुरिसवरे, पुरिससोहे, पुरिसवग्धे, पुरिसासीविसे, पुरिसपुउरीए, पुरिसवरगंधहत्थी, अड्ड, दित्ते, वित्ते, वित्थिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे, बहुधणबहुजायरूवरयए, आओगपभोगसंपउत्ते, विच्छड्डियपउरभत्तपाणे, बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए, पडिपुण्णजंतकोसकोडागाराउधागारे, बलवं, दुब्बलपच्चामित्ते; पोहयकंटयं, निहयकंटयं, मलियकंटयं, उद्धियकंटयं, अकंटयं, अोहयसत्तु, निहयसत्तु, मलियसत्तुं, उद्धियसत्तु, निज्जियसत्तुं पराइयसत्तुं, ववगयदुभिक्खं, मारिभयविप्पमुक्क, खेमं, सिवं, सुभिक्खं, पसंतडिबडमरं) रज्जं पसासेमाणे विहरइ। बिइयो गमो रायवण्णगस्स इमो तत्थ असंखेज्जकालवासंतरेण उप्पज्जए जसंसी, उत्तमे, अभिजाए, सत्तबीरिय-परक्कमगुणे, पसत्थवण्णसरसारसंघयणतणुगबुद्धिधारणमेहासंठाणसीलप्पगई, पहाणगारवच्छायागइए, अणेगवयणप्पहाणे, तेयाउबलवोरियजुत्ते, अझसिरघणणिचियलोहसंकलणारायवइरउसहसंघयणदेहधारी झस 1. जुग 2. भिगार 3. बद्धमाणग 4. भद्दासण 5. संख 6. छत्त 7. वीयणि 8. पडाग 6. चक्क 10. णंगल 11. मूसल 12. रह 13. सोत्थिय 14. अंकुस 15. चंदाइच्च 16-17. अग्गि 18. जूय 16. सागर 20. इंदज्झय 21. पुहवि 22. पउम 23. कुञ्जर 24. सोहासण 25. दंड 26. कुम्म 27. गिरिवर 28. तुरगवर 26. वरमउड 30. कुडल 31. गंदावत्त 32. धणु 33. कोंत 34. गागर 35. भवणविमाण 36. अणेगलक्खणपसत्थसुविभत्तचित्तकरचरणदेसभाए, उड्ढामुहलोमजालसुकुमालणिद्धमउमावत्तपसत्थलोमविरइयसिरिवच्छच्छष्णविउलवच्छे, देसखेत्तसुविभत्तदेहधारी, तरुणरविरस्सिबोहियवरकमलविबुद्धगम्भवणे, हयपोसणकोससण्णिभपसत्थपिटुंतणिरुवलेवे, पउमुप्पलकुन्दजाइजुहियवरचंपगणागपुष्फसारंगतुल्लगंधी, छत्तीसाहियपसत्यपस्थिवगुहि जुत्ते, अन्बोच्छिण्णायवत्ते, पागडउभयजोणी, विसुद्धणियगकुलगयणपुण्णचंदे, चंदे इव सोमयाए गयणमणणिन्वुइकरे, अक्खोभे सागरो व थिमिए, धणवइव्व भोगसमुदयसद्दव्वयाए, समरे अपराइए, परमविक्कमगुणे, अमरवइसमाणसरिसरूवे, मणुयवई भरहचक्कवट्टी भरहं भुजइ पणटुसत्तू / [52] वहाँ विनीता राजधानी में भरत नामक चातुरंत चक्रवर्ती पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिणतीन ओर समुद्र एवं उत्तर में हिमवान्–यों चारों ओर विस्तृत विशाल राज्य का अधिपति राजा उत्पन्न हुअा। वह महाहिमवान् पर्वत के समान महत्ता तथा मलय, मेरु एवं महेन्द्र (संज्ञक पर्वतों) के सदृश प्रधानता या विशिष्टता लिये हुए था। वह अत्यन्त विशुद्ध-दोष रहित, चिरकालीनप्राचीन वश में उत्पन्न हुआ था। उसके अंग पूर्णतः राजोचित लक्षणों से सुशोभित थे। वह बहुत लोगों द्वारा अति सम्मानित और पूजित था, सर्वगुण-समृद्ध–सब गुणों से शोभित क्षत्रिय था—जनता को आक्रमण तथा संकट से बचाने वाला था, वह सदा मुदित'-प्रसन्न रहता था। अपनी पैतृक 1. टीकाकार आचार्य श्री अभयदेवसरि ने 'मुदित' का एक दूसरा अर्थ निर्दोषमातृक भी किया है। उस सन्दर्भ में उन्होंने उल्लेख किया है--'मुइनो जो होइ जोणिसुद्धोत्ति।' -प्रौपपातिकसूत्र वृत्ति, पत्र 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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