________________ प्रस्तुत पागम में जिन प्रश्नों पर चिन्तन किया गया है, उन्हीं पर अंग साहित्य में भी विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। स्थानांग, समवायांग और भगवती में अनेक स्थलों पर विविध दृष्टियों से लिखा गया है। इसी प्रकार परवर्ती श्वेताम्बर साहित्य में भी बहुत ही विस्तार से चर्चा की गई है, तो दिगम्बर परम्परा के तिलोयपण्णत्ति प्रादि ग्रन्थों में भी विस्तार से निरूपण किया गया है। यह वर्णन केवल जैन परम्परा के ग्रन्थों में ही नहीं, भारत की प्राचीन वैदिक परम्परा और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों में भी इस सम्बन्ध में यत्र-तत्र निरूपण किया गया है। भारतीय मनीषियों के अन्तर्मानस में जम्बूद्वीप से प्रति गहरी प्रास्था और अप्रतिम सम्मान रहा है। जिसके कारण ही विवाह, नामकरण, गृहप्रवेश प्रमति मांगलिक कार्यों के प्रारम्भ में मंगल कलश स्थापन के समय यह मन्त्र दोहराया जाता है जम्बूद्वीपे भरतक्षेने आर्यखडे""प्रदेशे "नगरे "संवत्सरे "शुभमासे... वैदिक दृष्टि से जम्बूद्वीप ऋग्वेद में ब्रह्माण्ड के प्राकार, प्रायु प्रादि के सबन्ध में स्फुट वर्णन है पर जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में वहाँ चर्चा नहीं हुई है। यजुर्वेद, अथर्ववेद, सामवेद, प्रारण्यक प्रादि में जम्बूद्वीप के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख मिलते हैं पर जम्बूद्वीप का व्यवस्थित विवेचन वैदिक पुराण-वायुपुराण, विष्णुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, गरुडपुराण, मत्स्यपुराण, मार्कण्डेयपुराण और अग्निपुराण प्रभृति पुराणों में विस्तार से प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत, रामायण और महाभारत प्रभूति महाकाव्यों में भी जम्बूद्वीप की चर्चा है / वायुपुराण में सम्पूर्ण पृथ्वी को जम्बूद्वीप, भद्राश्व, केतुमाल, उत्तर-कुरु इन चार द्वीपों में विभक्त किया है। योगदर्शन व्यासभाष्य में लोक की संख्या सात बताई गई है। deg लिखा है-प्रथम लोक का नाम भूलोक है। भूलोक भी सात द्वीपों में विभक्त है / भूलोक के मध्य में सुमेरु पर्वत है। सुमेरु पर्वत के दक्षिण-पूर्व में जम्बू नाम का वृक्ष है / जिसके कारण लवणसमुद्र से वेष्टित द्वीप का नाम जम्बूद्वीप पड़ा / मेरु से उत्तर की भोर नील, श्वेत, शृगवान नामक तीन पर्वत हैं / प्रत्येक पर्वत का विस्तार दो दो हजार योजन है / इन पर्वतों के बीच में रमणक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु ये तीन क्षेत्र हैं और सभी का अपना-अपना क्षेत्र विस्तार नौ-नौ योजन है। मेरु से दक्षिण में निषध, हेमकूट भोर हिम नामक तीन पर्वत हैं। इन पर्वतों के मध्य में हरिवर्ष, किंपुरुष और भारत ये तीन क्षेत्र हैं। मेरु से पूर्व में माल्यवान पर्वत है। माल्यवान पर्वत से समुद्र पर्यन्त भद्राश्व नामक क्षेत्र है। मेरु से पश्चिम में गंधमादन पर्वत है। गंधमादन पर्वत से समुद्रपर्यन्त केतुमाल नामक क्षेत्र है। मेरु के अधोभाग में इलावृत्त क्षेत्र है। जिसका विस्तार पचास हजार योजन है / इस प्रकार जम्बूद्वीप के नो क्षेत्र हैं / जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। इसी तरह श्रीमद्भागवत' में भी प्रियव्रत के समय पृथ्वी सात द्वीपों में विभक्त हुई। वे द्वीप थे१. कुशद्वीप 2. क्रोंचद्वीप 3. शाकद्वीप 4. जम्बूद्वीप 5. लक्षद्वीप 6. शाल्मलद्वीप 7. पुष्करद्वीप / कमल पत्र के समान गोलाकार इस जम्बूद्वीप का विस्तार एक लाख योजन है। इसमें आठ पर्वतों से विभक्त नौ क्षेत्र हैं। जम्बूद्वीप से सोता, अलकनन्दा, चक्षु और भद्रा नामक नदियां चारों दिशाओं से बहती हुई समुद्र में 39. वायुपुराण, अध्याय 34 40. जम्बूदीप परिशीलन, अनुपम जैन, प्र. दि. जैन त्रिलोक शोध संस्थान, मेरठ 41. श्रीमद्भागवत 5 // 1 // 32-33 [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org