________________ 40 [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र होते थे। उनकी ग्रीवाएँ चार अंगुल प्रमाणोपेत तथा उत्तम शंख सदृश थीं-शंख की ज्यों तीन रेखाओं से युक्त होती थीं। उनकी ठुड्डियां मांसल-सुपुष्ट, सुगठित तथा प्रशस्त थीं। उनके अधरोष्ठ अनार के पुष्प को ज्यों लाल, पूष्ट ल, पुष्ट, ऊपर के होठ की अपेक्षा कुछ कुछ लम्बे, कुचित-नीचे की ओर कुछ मुड़े हुए थे / उनके दांत दही, जलकण, चन्द्र, कुन्द-पुष्प, वासंतिक-कलिका जैसे धवल, अछिद्र---छिद्ररहित-अविरल तथा विमल-मलरहित-उज्ज्वल थे। उनके तालु तथा जिह्वा लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल एवं सुकुमार थीं। उनकी नासिकाएँ कनेर की कलिका जैसी अकुटिल, अभ्युद्गतआगे निकली हुई, ऋजु–सीधी, तुग-तीखी या ऊँची थीं। उनके नेत्र शरदऋतु के सूर्यविकासी रक्त कमल, चन्द्रविकासी श्वेत कुमुद तथा कुवलय-नीलोत्पल के स्वच्छ पत्रसमह जैसे प्रशस्त. अजिह्म-सीधे तथा कांत--सुन्दर थे / उनके लोचन सुन्दर पलकों से युक्त, धवल, आयत-विस्तीर्ण-~कर्णान्तपर्यंत तथा प्राताम्र-हलके लाल रंग के थे। उनकी भौंहें कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर—कुछ टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश एवं सुरचित थीं। उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत–ससुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे। उनकी कपोल-पालि परिपुष्ट तथा सुन्दर थीं। उनके ललाट चौकोर, प्रशस्त–उत्तम तथा स उनके मुख शरद् ऋतु की पूर्णिमा के निर्मल, परिपूर्ण चन्द्र जैसे सौम्य थे। उनके मस्तक छत्र की ज्यों उन्नत थे / उनके केश काले, चिकने, सुगन्धित तथा लम्बे थे। छत्र, ध्वजा, यूप-यज्ञ-स्तंभ, स्तूप, दाम-माला, कमंडलु, कलश, वापी-बावड़ी, स्वस्तिक, पताका, यव, मत्स्य, कछुआ, श्रेष्ठ रथ, मकरध्वज, अंक-काले तिल, थाल, अंकुश, अष्टापद-द्यूतपट्ट, सुप्रतिष्ठक, मयूर, लक्ष्मी-अभिषेक, तोरण, पृथ्वी, समुद्र, उत्तम भवन, पर्वत, श्रेष्ठ दर्पण, लीलोत्सुक हाथी, बैल, सिंह तथा चँवर इन उत्तम, श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों से वे युक्त थीं। उनकी गति हंस जैसी थी / उनका स्वर कोयल की बोली सदृश मधुर था। वे कांति युक्त थीं। वे सर्वानुमत थीं-उन्हें सब चाहते थे—कोई उनसे द्वेष नहीं / करता था। न उनकी देह में झुरियाँ पड़ती थीं, न उनके बाल सफेद होते थे। वे व्यंग-विकृत अंगयुक्त या हीनाधिक अंगयुक्त, दुर्वर्ण-दूषित या अप्रशस्त वर्ण युक्त नहीं थीं। वे व्याधिमुक्त-रोग रहित होती थीं, दौर्भाग्य-वैधव्य, दारिद्रय प्रादि-जनित शोक रहित थीं। उनकी ऊँचाई पुरुषों से कुछ कम होती थी। स्वभावतः उनका वेष शृगारानुरूप सुन्दर था। संगत-समुचित गति, हास्य, बोली, स्थिति, चेष्टा, विलास तथा संलाप में वे निपुण एवं उपयुक्त व्यवहार में कुशल थीं। उनके स्तन, जघन, वदन, हाथ, पैर तथा नेत्र सुन्दर होते थे / वे लावण्य युक्त होती थीं / वर्ण, रूप, यौवन, विलासनारीजनोचित नयन-चेष्टाक्रम से उल्लसित थीं / वे नन्दनवन में विचरणशील अप्सराओं जैसी मानो मानुषी अप्सराएँ थीं। उन्हें देखकर-उनका सौंदर्य, शोभा आदि देखकर प्रेक्षकों को आश्चर्य होता था। इस प्रकार वे मनःप्रसादकर-चित्त को प्रसन्न करने वाली तथा प्रतिरूप--मन में बस जाने वाली थीं। भरतक्षेत्र के मनुष्य अोघस्वर-प्रवाहशील स्वर युक्त, हंस की ज्यों मधुर स्वर युक्त, क्रोंच पक्षी की ज्यों दूरदेशव्यापी-बहुत दूर तक पहुँचने वाले स्वर से युक्त तथा नन्दी-द्वादशविध-तूर्यसमवाय-बारह प्रकार के तूर्य-वाद्यविशेषों के सम्मिलित नाद सदृश स्वर युक्त थे। उनका स्वर एवं घोष-अनुनाद-दहाड़ या गर्जना सिंह जैसी जोशीली थी। उनके स्वर तथा घोष में निराली शोभा थी। उनकी देह के अंग-अंग प्रभा से उद्योतित थे। वे बज्रऋषभनाराचसंहनन -सर्वोत्कृष्ट अस्थिबन्ध तथा समचौरस संस्थान सर्वोत्कृष्ट दैहिक प्राकृति वाले थे / उनकी चमड़ी में किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org