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________________ [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र है / उदाहरणार्थ नगरी के वर्णन का जो सामान्य-क्रम है, वह सभी नगरियों के लिए काम में प्रा जाता है / उद्यान आदि के साथ भी ऐसा ही है। लिखे जाने से पूर्व जैन आगम मौखिक परम्परा से याद रखे जाते थे। याद रखने में सुविधा की दृष्टि से सम्भवतः यह शैली अपनाई गई हो / वैसे नगर, उद्यान आदि लगभग सदृश होते ही हैं / इस सूत्र में संकेतित चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है / चैत्य शब्द अनेकार्थवादी है। सुप्रसिद्ध जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की है।' चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषावैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीनकाल में परम्परा रही है। भारतवर्ष बाहर भी ऐसा होता रहा है। चिति या चिता के स्थान पर लगाये जाने के कारण वह वृक्ष 'चैत्य' कहा जाने लगा हो। आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई। वक्ष के स्थान पर स्मारक के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी। यों उसने एक देवस्थान या मन्दिर का रूप ले लिया। वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवान महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदमूई णामं अणगारे गोअमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वइर-रिसहणाराय-संघयणे, कणग-पुलगनिघस-पम्हगोरे, उग्गतवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, अोराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढ-सरीरे, संखित्त-विउल-तेउ-लेस्से तिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ, गंमसइ, बंदिता, णमंसित्ता एवं क्यासी। [2] उसी समय की बात है, भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी-शिष्य इन्द्रभूति नामक अनगार--श्रमण, जो गौतम गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊँचाई सात हाथ थी, समचतुरस्र संस्थानसंस्थित–देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन--सुदढ़ अस्थिबंधमय विशिष्ट देह-रचना युक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों को भस्मसात करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त-तपस्वी—जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे। वे भगवान् के पास आये, तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। बन्दननमस्कार कर यों बोले (जो आगे के सूत्र में द्रष्टव्य है)। जम्बूद्वीप की अवस्थिति 3. कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे, 1, केमहालए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे 2, किसंठिए णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे 3, किमायारभावपडोयारे णं भंते ! जंबुद्दीवे दोवे 4, पण्णत्ते ? 1. देखें औपपातिक सूत्र-(श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर), पृष्ठ 6-7 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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