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________________ [जम्पूटीपप्रज्ञप्तिसूत्र गौतम ! उस समय भरतक्षेत्र के मनुष्यों के छह प्रकार के संहनन एव संस्थान होते हैं। उनकी ऊँचाई अनेक हाथ-सात हाथ की होती है / वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट कुछ– तेतीस वर्ष अधिक सौ वर्ष के आयुष्य का भोग करते हैं। आयुष्य का भोग कर उनमें से कई नरक-गति में, (कई तिर्यञ्च-गति में, कई मनुष्य-गति में, कई देव-गति में जाते हैं, कई सिद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं परिनिवृत्त होते हैं)। उस काल के अन्तिम तीसरे भाग में गणधर्म-किसी समुदाय या जाति के वैवाहिक आदि स्व-स्व प्रवर्तित व्यवहार, पाखण्ड-धर्म-निर्गन्थ-प्रवचनेतर शाक्य आदि अन्यान्य मत, राजधर्म-निग्रहअनुग्रहादि मूलक राजव्यवस्था, जाततेज-अग्नि तथा चारित्र-धर्म विच्छिन्न हो जाता है। विवेचन-भाषाविज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा परिवर्तित हो जाता है। यही स्थिति पाषंड या पाखण्ड शब्द के साथ है / आज प्रचलित पाखण्ड या पाखण्डी शब्द के अर्थ में प्राचीन काल में प्रचलित अर्थ से सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाषंडी या पाखण्डी शब्द अन्य मतों के अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा / आज पाखण्ड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है / ढोंगी को पाखण्डी कहा जाता है / प्राचीन काल में पाषंड या पाखण्ड के साथ निन्दात्मकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर यह आया है। अवपिणी : दुःषम-दुःषमा 46. तीसे णं समाए एक्कवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइक्कते अणंतेहि बण्णपज्जवेहि, गंधपज्जवेहि, रसपज्जवेहि, फासपज्जवेहिं जाव' परिहायमाणे 2 एत्थ णं दूसमदूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउओ ! तीसे णं भंते ! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सह ? गोयमा ! काले भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलभूए, समाणुभावेण य खरफरुसधलिमइला, दुम्विसहा, वाउला, भयंकरा य वाया संवट्टगा य वाइंति, इह अभिक्खणं 2 धूमाहिति अ दिसा समंता रउस्सला रेणुकलुसतमपडलणिरालोआ, समयलुक्खयाए णं अहिअं चंदा सोनं मोच्छिहिति, अहि सूरिआ तविस्संति, अदुत्तरं च णं गोयमा! अभिक्खणं अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, विसमेहा, अजवणिज्जोदगा, वाहिरोगवेदणोदोरणपरिणामसलिला, अमणुष्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वाििहति, जेणं भरहे वासे गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमगयं जणक्यं, चउप्पयगवेलए, खहयरे, पक्खिसंघे गामारण्णप्पयारणिरए तसे अ पाणे, बहुप्पयारे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्ध'सेहिति, पव्वयगिरिडोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअगिरिवज्जे विरावेहिति, सलिलबिलविसमगत्तणिण्णुण्णयाणि अ गंगासिंधुवज्जाई समीकरोहिंति। 1. देखें सूत्र संख्या 28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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