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________________ 308] [जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र छूटते हैं, इतने गिरते हैं कि उन पंचरंगे पुष्पों का घुटने-घुटने जितना ऊँचा एक विचित्र ढेर लग जाता है / चन्द्रकान्त आदि रत्न, हीरे तथा नीलम से बने उज्ज्वल दंडयुक्त, स्वर्ण मणि एवं रत्नों से चित्रांकित, काले प्रगर, उत्तम कुन्दरुक्क, लोबान एवं धूप से निकलती श्रेष्ठ सुगन्ध से परिव्याप्त, धूम-श्रेणी-धूएँ की लहर छोड़ते हुए नीलम-निर्मित धूपदान को प्रगृहीत कर-पकड़ कर प्रयत्नपूर्वक--सावधानी से, अभिरुचि से धूप देता है। धूप देकर जिनवरेन्द्र के सम्मुख सात-पाठ कदम चलकर, हाथ जोड़कर अंजलि बाँधे उन्हें मस्तक से लगाकर उदात्त, अनुदात्त आदि स्वरोच्चारण में जागरूक शुद्ध पाठयुक्त, अपुनरुक्त अर्थयुक्त एक सौ पाठ महावृत्तों-महाचरित्रों ... महिमामय काव्यों-- कविताओं द्वारा उनकी स्तुति करता है। वैसा कर वह अपना बायां घुटना ऊँचा उठाता है, दाहिना घटना भमितल पर रखता है, हाथ जोड़ता है, अंजलि बांधे उन्हें मस्तक से लगाता है. कहता है हे सिद्ध-मोक्षोद्यत ! बुद्ध--ज्ञात-तत्त्व ! नीरज-कर्मरजोरहित ! श्रमण--तपस्विन् ! समाहित अनाकुल-चित्त ! समाप्त-कृत-कृत्य ! समयोगिन्-कुशल-मनोवाक्काययुक्त ! शल्य-कर्तन--कर्मशल्य को विध्वस्त करने वाले ! निर्भय-भीतिरहित ! नीरागदोष-राग-द्वेषरहित ! निर्मम-. निःसंग, निर्लेप ! निःशल्य शल्यरहित ! मान-मरण-मान-मर्दन--अहंकार का नाश करने वाले ! गुण-रत्न-शील-सागर-गुणों में रत्नस्वरूप-अति उत्कृष्ट शील–ब्रह्मचर्य के सागर ! अनन्तअन्तरहित ! अप्रमेय-अपरिमित ज्ञान तथा गुणयुक्त, धर्म-साम्राज्य के भावी उत्तम चातुरन्तचक्रवर्ती-चारों गतियों-देवगति, मनुष्य गति, तिर्यञ्चगति एवं नरकगति का अन्त करने वाले धर्मचक्र के प्रवर्तक! महत–जगत्पूज्य अथवा कर्म-रिपूत्रों का नाश करने वाले ! मापको नमस्कार हो। इन शब्दों में वह भगवान् को बन्दन करता है, नमन करता है। उनके न अधिक दूर, न अधिक समीप अवस्थित होता हुआ शुश्रूषा करता है, पर्युपासना करता है। अच्यूतेन्द्र की ज्यों प्राणतेन्द्र यावत् ईशानेन्द्र द्वारा सम्पादित अभिषेक-कृत्य का भी वर्णन करना चाहिए / भवनपति, वानव्यन्तर एवं ज्योतिष्केन्द्र चन्द्र, सूर्य-सभी इसी प्रकार अपने-अपने देव-परिवार सहित अभिषेक-कृत्य करते हैं / देवेन्द्र, देवराज ईशान पांच ईशानेन्द्रों को विकुर्वणा करता है--पांच ईशानेन्द्रों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। एक ईशानेन्द्र भगवान् तीर्थकर को अपनी हथेलियों में संपुट द्वारा उठाता है / उठाकर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठता है। एक ईशानेन्द्र पीछे छत्र धारण करता है। दो ईशानेन्द्र दोनों ओर चँवर डुलाते हैं / एक ईशानेन्द्र हाथ में त्रिशूल लिये आगे खड़ा रहता है। तब देवेन्द्र देवराज शक्र अपने आभियोगिक देवों को बुलाता है। बुलाकर उन्हें अच्युतेन्द्र की ज्यों अभिषेक-सामग्री लाने की आज्ञा देता है। वह अभिषेक-सामग्री लाते हैं। फिर देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् तीर्थंकर की चारों दिशाओं में शंख के चूर्ण को ज्यों विमल-निर्मल-अत्यन्त निर्मल, गहरे जमे हुए, बँधे हुए दधि-पिण्ड, गो-दुग्ध के झाग एवं चन्द्र-ज्योत्स्ना की ज्यों सफेद, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय–देखने योग्य, अभिरूप--मनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाले, प्रतिरूप-मन में बस जाने वाले चार धवल वृषभों-बैलों की विकुर्वणा करता है। उन चारों बैलों के पाठ सींगों में से पाठ जलधाराएँ निकलती हैं, वे जलधाराएँ ऊपर आकाश में जाती हैं। ऊपर जाकर, आपस में मिलकर वे एक हो जाती हैं। एक होकर भगवान् तीर्थकर के मस्तक पर निपतित होती हैं / अपने चौरासी हजार सामानिक आदि देव-परिवार से परिवृत देवेन्द्र, देवराज शक्र भगवान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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