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________________ द्वितीय वक्षस्कार] रूवजोवणविलासकलिआओ, गंदणवणविवरचारिणीउब्व अच्छराओ, भरहवासमाणुसच्छरानो, अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ, पासाईआपो जाव' पडिरूवाओ। 3. ते णं मणुप्रा ओहस्सरा, हंसस्सरा, कोंचस्सरा, णंदिस्सरा, गंदिघोसा, सोहस्सरा, सोहघोसा, सुसरा, सुसरणिग्घोसा, छायायवोज्जोविअंगमंगा, बज्जरिसहनारायसंघयणा, समचउरसंठाण संठिया, छविणिरातका, अणुलोमवाउवेगा, कंकग्गहणी, कवोयपरिणामा, सउणिपोसपिटुतरोरुपरिणया, छद्धणुसहस्समूसिया / तेसि णं मणुआणं वे छप्पण्णा पिट्टकरंडकसया पण्णत्ता समणाउसो! पउमुप्पलगंधसरिसणीसाससुरभिवयणा, ते णं मणुआ पगईउवसंता, पगईपयणुकोहमाणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्ना, अल्लीणा, भद्दगा, विणीमा, अप्पिच्छा, असणिहिसंचया, विडिमंतरपरिवसणा, जहिच्छिअकामकामिणो। [28] उस समय भरतक्षेत्र में मनुष्यों का प्राकार-स्वरूप कैसा था ? गौतम ! उस समय वहाँ के मनुष्य बड़े सुन्दर, दर्शनीय, अभिरूप एवं प्रतिरूप थे। उनके चरण—पैर सुप्रतिष्ठित-सुन्दर रचना युक्त तथा कछए की तरह उठे हुए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे। उनकी पगलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार और कोमल थीं / उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर एवं चक्ररूप उत्तम मंगलचिह्नों से अंकित थे। उनके पैरों की अंगुलियां क्रमश: आनुपातिक रूप में छोटी-बड़ी एवं सुसंहत सुन्दर रूप में एक दूसरी से सटी हुई थीं। पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह कुछ कुछ लाल तथा स्निग्ध-चिकने थे। उनके टखने सुन्दर, सुगठित एवं निगढ थे—मांसलता के कारण बाहर नहीं निकले हुए थे। उनकी पिंडलियां हरिणी की पिंडलियों, कुरुविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेडी की तरह क्रमश: उतार सहित गोल थीं / उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ थे। हाथी की सूड की तरह जंघाएँ सुगठित थीं। श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम, गंभीरता और मस्ती लिये उनकी चाल थी। प्रमुदित-रोग, शोक आदि रहित-स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी। उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनके गुह्य भाग थे / उत्तम जाति के घोड़े की तरह उनका शरीर मलमूत्र विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था। उनकी देह के मध्यभाग त्रिकाष्ठिका, मूसल तथा दर्पण के हत्थे के मध्य भाग के समान, तलवार की श्रेष्ठ स्वर्णमय मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतले थे। उनके कुक्षिप्रदेश–उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात—सुनिष्पन्नसुन्दर रूप में रचित तथा पीन-परिपुष्ट थे / उनके उदर मत्स्य जैसे थे। उनके करण—पान्त्रसमूहांतें शुचि-स्वच्छ-निर्मल थीं। उनकी नाभियाँ कमल की ज्यों गंभीर, विकट-गढ़, गंगा की भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार सुन्दर, चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल की तरह खिली हुई थीं। उनके बक्षस्थल और उदर पर सीधे, समान, संहित-एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट, हलके, काले, चिकने, उत्तम लावण्यमय, सुकुमार, कोमल तथा रमणीय बालों की पंक्तियाँ थीं। उनकी देह के पार्श्वभाग—पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः 1. देखें सूत्र यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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