________________ 152] [जम्यूद्वीपप्रशप्तिसूत्र रयणदेसियमग्गे (अणेगराय० महया उक्किटुसीहणायबोलकलकलसद्देणं समुद्दरवभूयं पिव करेमाणे) खंडगप्पवायगुहाओ दक्खिणिल्लेणं दारेणं णोणेइ ससिव्व मेहंधयारनिवहारो। (81) गंगा देवी को साध लेने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव सम्पन्न हो जाने पर वह दिव्य चक्ररत्न शस्त्रागार से बाहर निकला। बाहर निकलकर उसने गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण किया। तब (दिव्य चक्ररत्न को गंगा महानदी के पश्चिमी किनारे दक्षिण दिशा में खण्डप्रपात गुफा की ओर प्रयाण करते देखा, देखकर) राजा भरत जहाँ खण्डप्रपात गुफा थी, वहाँ अाया। यहाँ तमिस्रा गुफा के अधिपति कृतमाल देव से सम्बद्ध समग्र वक्तव्यता ग्राह्य है। केवल इतना सा अन्तर है, खण्डप्रपात गुफा के अधिपति नत्तमालक देव ने प्रीतिदान के रूप में राजा भरत को आभूषणों से भरा हुआ पात्र, कटक-हाथों के कड़े विशेष रूप में भेंट किये। नृत्तमालक देव को विजय करने के उपलक्ष्य में आयोजित अष्टदिवसीय महोत्सव के सम्पन्न हो जाने पर राजा भरत ने सेनापति सुषेण को बुलाया। यहाँ पर सिन्धु देवी से सम्बद्ध प्रसंग ग्राह्य है / सेनापति सुषेण ने गंगा महानदी के पूर्वभागवर्ती कोण-प्रदेश को, जो पश्चिम में महानदी से. पूर्व में समुद्र से, दक्षिण में वैताढ्य पर्वत से एवं उत्तर में लघु हिमवान् पर्वत से मर्यादित था, तथा सम-विषम अवान्तरक्षेत्रीय कोणवर्ती भागों को साधा / श्रेष्ठ, उत्तम रत्न भेंट में प्राप्त किये / वैसा कर सेनापति सुषेण जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ पाया। वहाँ आकर उसने निर्मल जल की ऊँची उछलती लहरों से युक्त गंगा महानदी को नौका के रूप में परिणत चर्मरत्न द्वार किया। पार कर जहाँ राजा भरत था. सेना का पडाव था, जहाँ बाह्य उपस्थान उपस्थानशाला थी. वहाँ आया। आकर प्राभिषेक्य हस्तिरत्न से नीचे उतरा। नीचे उतर कर उसने उत्तम, श्रेष्ठ रत्न लिये, जहाँ राजा भरत था, वह वहाँ आया। वहाँ आकर दोनों हाथ जोड़े, अंजलि बाँधे राजा भरत को जय-विजय शब्दों द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर उत्तम, श्रेष्ठ रत्न, जो भेंट में प्राप्त हुए थे, राजा को समर्पित किये। राजा भरत ने सेनापति सुषेण द्वारा समर्पित उत्तम, श्रेष्ठ रत्न स्वीकार किये / रत्न स्वीकार कर सेनापति सुषेण का सत्कार किया, सम्मान किया। उसे सत्कृत, सम्मानित कर वहाँ से विदा किया। आगे का प्रसंग पहले आये वर्णन की ज्यों है / तत्पश्चात् एक समय राजा भरत ने सेनापतिरत्न सुषेण को बुलाया / बुलाकर उससे कहा-देवानुप्रिय ! जाओ, खण्डप्रपात गुफा के उत्तरी द्वार के कपाट उद्घाटित करो। आगे का वर्णन तमिस्रा गुफा की ज्यों संग्राह्य है / फिर राजा भरत उत्तरी द्वार से गया। सघन अन्धकार को चीर कर जैसे चन्द्रमा आगे बढ़ता है, उसी तरह खण्डप्रपात गुफा में प्रविष्ट हुआ, मण्डलों का आलेखन किया। खण्डप्रपात गुफा के ठीक बीच के भाग से उन्मग्नजला तथा निमग्नजला नामक दो बड़ी नदियाँ निकलती हैं। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org