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________________ द्वितीय वक्षस्कार] [31 अग्नि जला सके, न वायु उड़ा सके, न वे सड़ें-गले.-दुर्गन्धित हों। फिर सौ-सौ वर्ष के बाद एक-एक बालाग्र निकाले जाते रहने पर जब वह पल्य बिल्कुल रीता हो जाए, रजरहित-धूलकण-सदृश बालागों से रहित हो जाए, निलिप्त हो जाए—बालान कहीं जरा भी चिपके न रह जाएं, सर्वथा रिक्त हो जाए, तब तक का समय एक पल्योपम' कहा जाता है। ऐसे कोड़ाकोड़ी पल्योपम का दस गुना एक सागरोपम का परिमाण है। ऐसे सागरोपम परिमाण से सुषमसुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमदुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दु:षमसुषमा का काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष तथा दुःषमदुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष है / यह अवसर्पिणी काल के छह प्रारों का परिमाण है / उत्सर्पिणी काल का परिमाण इससे प्रतिलोम-उलटा-(दुःषमदुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष, दुःषमा का काल इक्कीस हजार वर्ष, दुःषमसुषमा का काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमदुःषमा का काल दो कोड़ा-कोड़ी सागरोपम, सुषमा का काल तीन कोड़ा-कोड़ी सागरोपम तथा) सुषमसुषमा का काल चार कोड़ा-कोड़ी सागरोपम है। इस प्रकार अवसर्पिणी का काल दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है तथा उत्सर्पिणी का काल भी दस सागरोपम कोड़ा-कोड़ी है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी—दोनों का काल बीस कोड़ा-कोड़ी साग़रोपम है। अवसर्पिणी : सुषमसुषमा 26. जंबुद्दीवे णं भंते ! दोवे भरहे वासे इमोसे ओस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे होत्था ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था, से जहाणामए प्रालिंगपुक्खरेइ वा जाव' णाणामणिपंचवणेहि तणेहि य मणीहि य उवसोभिए, तंजहा- किण्हेहि, (नोलेहि, लोहिएहि, हलिहि,) सुक्किल्लेहिं / एवं वण्णो, गंधो, रसो, फासो, सद्दो अतणाण य मणीण य भाणिप्रव्यो जाव तत्थ णं बहवे मणुस्सा मणुस्सीनो अप्रासयंति, सयंति, चिट्टति, णिसोअंति, तुअट्टति, हसंति, रमंति, ललंति / तीसे णं समाए भरहे वासे बहवे उद्दाला कुद्दाला मुद्दाला कयमाला गट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संखमाला सेअमाला णामं दुमगणा पण्णत्ता, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला, मूलमंतो, कंदमंतो, (खंधमंतो, तयामंतो, सालमंतो, पवालमंतो, पत्तमंतो, पुष्फमती, फलमंतो,) बोअमंतो; पत्तेहि भ पुप्फेहि अ फलेहि प्र उच्छण्णपडिच्छण्णा, सिरीए अईव 2 उवसोभेमाणा चिट्ठति। तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे भेरुतालवणाई हेरुतालवणाई मेरुतालवणाई 1. देखें सूत्र संख्या 6 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003486
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Chhaganlal Shastri, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1986
Total Pages480
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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