Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्वार्थचिन्तामणिः
कि अपने कार्योंकी अपेक्षाकरके कारणपना और अपने कारणोंकी अपेक्षा करके कार्यपना भी एक पदार्थ में विरोधरहित हो जाओ। अपने गुरुकी अपेक्षासे जिनदत्त शिष्य है, और साथ ही अपने पढाये हुये शिष्यों की अपेक्षा से वही जिनदत्त गुरु भी है ।
५१
अथ स्वतोऽन्यस्य कार्यस्य कारणस्य वा साध्यस्य साधकस्य वा सद्भाषासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्कार्य कारणं बाध्यं बाधकं च साध्यं साधनं च स्वादिति ब्रूते तर्हि परस्य सद्भावासिद्धेः कथं तदपेक्षा यतस्तत्परस्य प्रतिषेधकं स्वविधायकं वा स्यादित्युपहासास्पदं तत्रं सुगतेन भावितमित्याह ।
अब आप यदि यों को कि स्वयं ज्ञानाद्वैतकी अपेक्षासे तो अन्य हो रहे कार्यकी और कारणकी अथवा साध्य और साधककी सत्ता ही असिद्ध है । अतः उन अन्य पदार्थोंकी भला अपेक्षा कैसे हो सकती है ? जिससे कि एक पदार्थ ही अपेक्षाकृत कार्य और कारण अथवा बाध्य और बाधक तथा साध्य और साधन हो सके, यों बौद्ध कह रहा है । इस प्रकार बौद्धोंकी स्पष्ट युक्ति होनेपर तो हम कहते हैं कि तब तो परके सद्भाव की असिद्धि हो जाने के कारण किस प्रकार उस परकी अपेक्षा हो सकेगी ? जिससे कि वह एक ही सम्बेदन परका निषेध करनेवाला और स्व का विधान करानेवाला हो सके, इस प्रकार हंसी करानेका स्थान ऐसा तत्व बुद्धकरके भावना किया गया है, इसी बात को श्री विद्यानन्द आचार्य महाराज वार्तिकद्वारा स्पष्ट कहते हैं ।
साध्यसाधनत्वादिर्न च सत्येतर स्थितिः ।
ते स्वसिद्धिरपीत्येतत्तत्वं सुगतभावितम् ॥ १३ ॥
तुम ज्ञानाद्वैतवादियों के यहां साध्ययन, साधनपन, कार्यपन, कारणपन, बाध्यपन, बाधकपन आदि की व्यवस्था नहीं है । और सत्य असयकी भी कोई व्यवस्था नहीं है । ऐसी दशा में तुम्हारे इष्ट स्वतस्त्र सम्वेदन की सिद्धि नहीं हो सकती है ! इस कारण यह क्षणिक शुद्ध विज्ञानाद्वैत स्वरूप तत्र को सुगतने श्रुतमयी, चिन्तामयी, भावनाओंद्वारा अच्छा विचारा है ! यह उपहासपूर्वक कथन है । अर्थात् मसजिदको ढाकर एक सडी हुयी खेडीको निकालने के समान लम्बी, चौडी, दीर्घकालिक, भावनाओं द्वारा यह निःसार विज्ञानाद्वैतका सिद्धान्त निकाला गया है । इसपर विद्वानोको हंसी जाती है । जो साध्य और साधनों को अथवा बाध्य और बाधकोंको नहीं स्वीकार करता है, वह अद्वैत सम्बेदनकी सिद्धि कथमपि नहीं कर सकता है ।
ततः स्त्ररूपसिद्धिमिच्छता सत्येतरस्थितिरङ्गीकर्त्तव्या साध्यसाधनत्वादिरपि स्त्रीकरणीय इति बाह्यार्यालम्बनाः प्रत्ययाः केचित्सन्त्येव, सर्वथा तेषां निरालम्बनत्वस्य ब्यवस्थानायोगात् ।