Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
शब्दके
उत् उपसर्गकरके धोतित भूतिको उद्भूति कहते हैं । सिद्धान्तमें निपातको घोतक माना गया है । वह उद्भूति जिनके आदिमें है वे तीन धर्म स्वान्तमासित भूत्याद्याः इस शब्द से कहे जाते हैं । इसका तात्पर्य उत्पाद, व्यय, धौव्य ये तीन धर्म हो जाते हैं। वे उन तीनस्वरूप धर्मोको जो व्याप्त कर रहा है, वह स्वान्तभासित भूत्याद्यत्र्यन्तात्मतत् हैं । यह साध्य है, उमान्त वाक् " यहाँ पक्ष है । सर्व, विश्व, उभ, उभय, आदि सर्वादिगण में उभ जिस अन्त में पडा है, वह विश्वशब्द है, विश्वका अर्थ सम्पूर्ण पदार्थ हैं । उस विश्वरूप पक्षमें पहिले कहा गया साध्य धर्म रखा गया है । इसका तात्पर्य सम्पूर्ण पदार्थ ( पक्ष ) उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन स्वभावोंको व्याप रहे हैं (साध्य) यह निकलता है । हेतुवाचक गूढपद यों है कि प्र, परा, अप, सम्, अनु, अव्, निस्, निर् आदि उपसर्गों में परा उपसर्ग जिसके अन्तमें है, ऐसा उपसर्ग प्र है । उपसर्गोको धात्वर्थ का द्योतक माना गया है । इस कारण उस प्र उपसर्ग करके द्योतित की गई, जो मिति उसकरके विषयरूप से प्राप्त किया गया जिसका स्वात्मा है, वह " परान्तद्योतितोद्दीप्त मितीतस्वात्मक " कहा गया । भावमें त्व प्रत्यय करनेपर उसके भावको परान्तद्योतितोद्दीप्तमितीतस्वात्मकत्व कहते हैं । इसका अर्थ प्रमेयत्व ऐसा फलित होता है । प्रमाणके विषयको प्रमेयपना व्यवस्थित है । इस प्रकार हेतुस्वरूप धर्मका गूढपदद्वारा कथन है । दृष्टान्त, उपनय आदिके विना मी हेतुका अपने साध्यके प्रति प्रतिपादकपना श्री माणिक्यनन्दी आचार्यने " एतद्वयमेवानुमानाङ्कं " इस सूत्र में समर्थन प्राप्त
दिया है । अकेली अन्यथानुपपत्तिकी सामर्थ्य से ही हेतुका गमकपना साधा जा चुका है । वह अन्यथानुपपत्ति तो इस अनुमानमें है ही । क्योंकि केवल उत्पाद ही या व्यय ही अथवा धौव्य ही अकेले धर्मसे युक्त हो रही सर्वथा कूटस्थ नित्य अथवा क्षणिक वस्तुका प्रमाणोंद्वारा विषय नहीं हो जानेपनसे समर्थन कर दिया गया है। हां, बालकोंके उचित बुद्धिको धारनेवाले शिष्य के अभिप्रायोंकी अधीनता से तो अनुमानके तीन, चार, आदिक अवयव भी पत्रवाक्य में लिख दिये जाते हैं । उसको स्पष्टरूपसे यों देख लीजियेगा कि "चित्राद्यदन्तराणीय मारेकान्तात्मकत्वतः । यदित्थं न तदित्यं न यथाऽकिञ्चिदिति त्रयः ॥१॥ तथा चेदमिति प्रोक्तौ चत्वारोऽवयवा मताः । तस्मात्तथेति निर्देशे पञ्च पत्रस्य कस्यचित् ॥ २ ॥ इस गूढ वाक्यका अर्थ इस प्रकार है कि चित्र यानी एक अनेक रूपोंको जो सर्वदा अनुगमन करता है, वह चित्रात् है । इसका अभिप्राय एक अनेक रूपों में व्यापनेसंपूर्ण पदार्थ ) है । गण में सर्वनाम
वाला है । अनेक धर्मात्मकपन इसका तात्पर्य है । यदन्तका अर्थ विश्व ( क्योंकि किसी किसी व्याकरण में सर्व, विश्व, यत्, इत्यादि रूपसे सर्वादि शद्ब पढे गये हैं । इस कारण जिसके अन्तमें यत् शद्व है, इस बहुव्रीहि समासगर्मित व्युत्पत्ति करने से यदन्तका अर्थ विश्व हो जाता है । उस विश्व शद्वकरके जो राणीय यानी कहने योग्य है, वह चित्राद्यदन्तराणीय है। रे शद्ब धातुसे अनीप प्रत्यय कर कृदन्तमें राणीय शद्ब बनाया है। यहांतक संपूर्ण पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं । यह प्रतिज्ञा वाक्य प्राप्त हुआ । आरेकान्तात्मकत्वतः यह हेतु है । नैया
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