Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ छोकवार्तिके
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मिलाकर उसका सुधार कर दिया है। नैयायिकोंके जल्प और वितण्डा तो तत्रका निर्णय नहीं करा सकते हैं । वितण्डावादीका तो स्वयं गठिका कोई पक्ष होता ही नहीं है । वह तो परपक्षका निराकरण ही करता रहता है । इस प्रकरण में नैयायिकोंको बहुत बडी मुंह की खानी पडी है । जल्प और वितण्डाद्वारा तस्त्रोंके निश्वयका संरक्षण मानना नैयायिकोंकी नीतिका नग्नमुत्य है । डोळा ले जानेवाले छिनरा चोट्टा पुरुषों को ही उसमें बैठी हुई सुन्दरी सालंकारा युवतिका रक्षाभार सौंपना भारी मूल है । दूसरोंको चुप करने मात्रमें प्रवर्त रहे जल्प बितण्डा, वादियों द्वारा तस्वाध्यवसाय नहीं हो पाता है। जहां दूसरोंके निग्रह करनेके लिये सतत प्रयत्न किया जाता है, छठ और जातियोंका उत्थापन किया जाता है, वहां तस्वनिर्णय की रक्षा नहीं हो सकती है । इसका अच्छा विचार किया गया है। वादी, प्रतिवादी, सभ्य, समापति इनकी सामर्थ्यका प्रतिपादन कर उनकी स्थिति और कर्त्तव्योंका दिग्दर्शन करा दिया है। प्रतिपक्ष के विधात का लक्षण कर अभिमान प्रयुक्त होनेवाले वाद में चारों अंगों की आवश्यकता बतलायी है। श्री दत्त महाराज के " जल्पनिर्णय ग्रन्थका प्रमाण देते हुये अभिमानिकवाद के तात्विक और प्रातिभ दो भेद किये हैं । तात्रिक वादमें श्री अकळंक भगवानके कथनानुसार एकके स्वपक्षकी सिद्धिका होना दूसरे वादीका निग्रह हो जाना माना गया है। अपने पक्षकी सिद्धि होनेतक शास्त्रार्थ रुका रहता है । पश्चात् शास्त्रार्थका भंग कर दिया जाता है। यहां स्वपक्षका विचार कर उसकी सिद्धिका विवेचन किया है । वादी पक्षकी मळे प्रकार सिद्धि हो जाना ही प्रतिवादीका निग्रह है । अथवा प्रतिवादीके पक्षी निर्दोषसिद्धि हो जाना ही वादीका निग्रह है । बौद्धोंके माने हुये असाधनाङ्गवचन और अदोषोद्भावन तो वादी प्रतिवादियोंके निग्रहस्थान नहीं हैं । उक्त रूपसे निग्रहस्थान उठाने पर गमारूपन आा जाता है । यहां बौद्धोंके आग्रहको विद्वत्तापूर्वक घर दबाया गया है। कई ढंगोंसे किये गये असाधनाङ्गवचनके व्याख्यानोंका प्रत्याख्यान कर दिया है। अदोषोद्भावनकी भी यही दशा हुई है । श्री विधानन्दी स्वामीका यह पाण्डित्य प्रशंसनीय है । बौद्धोंके इष्ट निग्रहस्थानोंके समान नैयायिकों के निग्रहस्थानोंकी भी दुर्गति की गयी है । प्रतिज्ञाहानि आदिक निग्रहस्थान उठाना भी सभ्य पुरुषों में होनेवाला समीचीन व्यवहार नहीं है । वह अपाण्डित्य या ग्रामीणपनका प्रदर्शन मात्र है | साहित्यवा कवि तो सभी वचनोंमें " वक्रोक्तिः काव्यजीवितं " अभीष्ट करते हैं । किन्तु शान्तिके अभिलाषुक दार्शनिक पुरुष दूसरेकी निन्दा, तिरस्कार, निग्रहव्यवस्था करनेमें साक्षात् अनिष्ट वचनोंके कथन के लिये संकोच करते हैं। रहस्य यह है कि अन्तमें सभी विचारशीकों को
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मिमानिक वादका परिश्याग कर वीतरागों में होनेवाले सम्वाद द्वारा तत्वनिर्णयको शरण पकडना आवश्यक पड जाता है । एक धर्मशाळा या रेलगाडीमें आश्रय लेनेवाले यात्रियोंको परिशेषमें प्रेम सद्भाव अथवा शाश्वतशान्तिकी प्राप्ति करना अपरिहार्य है, तो प्रथमसे ही तदनुकूल व्यवहार अक्षुण्ण बना रहे यही सर्वोत्तम मार्ग है। हां, निर्दोष सत्पक्षका ग्रहण नहीं करनेवाळे आम्ही पुरुषकी