Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्यचिन्तामणिः
कुत्सित मार्गसे परावृत्ति करानेके लिये मीठे तिरस्कारोंका अवलम्ब लेना आवश्यक पड जाता है । हम तो उसको भी एक जघन्य पदका ग्रहण करना समझते हैं । अतः नैयायिकों का यदि तस्व निर्णयकी संरक्षणा करना कक्ष्य है, तो परस्पर एक दूसरेको प्रतिज्ञाहानि आदि द्वारा निग्रहस्थान प्राप्त करा देनेका प्रयत्न नहीं करना चाहिये । इसके पश्चात् श्री विद्यानन्द स्वामीने नैयायिकों द्वारा माने गये प्रतिज्ञाहानि आदि निग्रहस्थानोंका विचार किया है । निग्रहस्थानका सामान्य लक्षण विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्ति ही करना ठीक नहीं दीखता है । इसमें अतिव्याप्ति दोष है तथा प्रतिज्ञाहानि आदिकके विशेष लक्षण भी परीक्षा करनेपर सुघटित नहीं बैठते हैं । प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध और प्रतिज्ञासंन्यास इनमें अत्यल्प अन्तर होनेसे मूलभेद करके भिन्न भिन्न कथन करना उचित नहीं है । प्रतिज्ञाहानि या प्रतिज्ञान्तर करमेके जो कारण नियत किये हैं, उनसे म्यारे अन्य कारणोंसे भी प्रतिज्ञाहानि आदि होना सम्भव जाता है। इनके अनुचितपनका प्रन्थकार मे स्वयं निर्देश किया है । जिस प्रकार हेत्वन्तर न्यारा निग्रहस्थान माना है, उसी प्रकार दृष्टान्तान्तर उपनयान्तर भी न्यारे निग्रहस्थान मान लेने चाहिये । स्वपक्षसिद्धि कर देनेपर अर्थान्तरका कथन करना वादीका निग्रहक नहीं हो सकता है । अपने कार्यको पूरा कर भले ही कोई नाचे तो भी वह दोषास्पद नहीं है । वर्णक्रम निर्देशके समान निरर्थकको यदि निग्रहस्थान माना जाय तो वादके अनुपयोगी हो रहीं खखारना, हाथ फट करना आदि क्रियायें भी निप्रहहेतु बन बैठेंगी । अविज्ञातार्थ भी विश्वारनेपर निग्रह हेतु नहीं है । मिरर्थकसे इसका भेद करना अनुचित है । पूर्वापरका सम्बन्ध नहीं होनेसे अपार्थकका स्वीकार किया जाना भी निरर्थकसे पृथक् नहीं होना चाहिये । वहाँ बर्ण निरर्थक हैं। यहां पद निरर्थक है । अन्यथा वाक्य निरर्थकको न्यारा निग्रहस्थान मानना पडेगा, जैसे कि छोटी लडकियां यों कह कर हाथोंपर क्रमवार अङ्गुली रखती हुई खेळा करती हैं कि "अटकन वटकन दही चटाके, वर फूले बैरागिन सागिंन, तुरईको फूल मकोईको डंका, जाउंका में सूभा सुपारी, उठोराय तुम देड नगारी उण्डी घुंडी टूट पडी मुरगण्डी ” इत्यादिक अनेक वाक्य पूर्वापर सम्बन्धरहित हैं । अप्राप्तकाल तो कथमपि निग्रहस्थान नहीं हो सकता है। जो प्रकाण्ड विद्वताका समर्थक है, वह उसका विघातक नहीं है। संस्कृत शद्वसे पुण्य और असंस्कृत शब्द के उच्चारणसे पाप होता है ऐसा नियम मानना अनुचित है । यदि आत्मामें विशुद्धि है तो सभी शुद्ध अशुद्ध शुद्ध बोलना पुण्यहेतु है। आत्मामें संक्केशका कारण उपस्थित होनेपर पापास्स्रव होता है। होन और अधिक ये दो निग्रहस्थान भी ठीक नहीं हैं । प्रतिपाचके अनुसार अनुमान बाक्यका प्रयोग किया जाता है। कहीं केवल हेतुका प्रयोग कर देनेसे ही साध्यसिद्धि हो जाती है । और कहीं प्रतिपत्ति दृढ करनेके लिये दो हेतु दो दृष्टान्त भी कह दिये जाते हैं। प्रमाणसंप्लव माननेवालेके यहां कोई दोष नहीं आता है । पुनरुकोंमें अर्थपुनरुक ही मानना ठीक है, जो कि निरर्थकमें ही गतार्थ हो सकता है। सच पूछो तो यह पुनरुक्त भी कोई भारी दोष नहीं है । उद्देश, लक्षण, और परीक्षाओंके अवसरोंपर एक
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