Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 533
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ५२१ w inimuminanimanmamremarimmiummernamainamaina वर्तमान कालमें सिद्ध हो रहे सम्पूर्ण पदार्थोंका अनित्यपना यदि सापा जावेगा तब तो जन्य पदार्थोके सत्व करके प्रतिवादी द्वारा शङ्कका अनित्यपना भला कैसे प्रतिषेधा जा सकता है ! अर्थात्-नहीं। इस बातकी प्रतिमादी और उसके साथी भले ही परीक्षा कर देखें, हमको कोई बापत्ति नहीं है । सद्भाव सिद्ध हो जानेसे सम्पूर्ण पदार्थोके अनित्यपनको कह रहे प्रतिवादी करके जब शद का अनित्यपना स्वीकार ही कर लिया गया है, उस दशामें बादीके पक्षका प्रतिवादी द्वारा प्रतिबेथ करना ही नहीं बन पाता है। फिर भी यह प्रसिद्ध प्रतिवादी सबके अनित्यवनको साध रहा संता ही शक्के अनित्यपनका प्रतिषेध कर रहा है। यों परस्पर विरुद्ध कह रहा यह प्रतिवादी स्वस्थ (होशमें ) कैसे कहा जा सकता है ! विचारशील पण्डित तो ऐसे विरुद्ध वचनोंका प्रयोग नहीं करता है । यहांतक अविशेषसमा जातिका विचार कर दिया गया है। कारणस्योपपत्तेः स्यादुभयोः पक्षयोरपि । उपपत्तिसमा जातिः प्रयुक्ते सत्यसाधने ॥ ४०८ ॥ वादी द्वारा सत्य हेतुका प्रयोग किया जा चुकनेपर पुनः प्रतिवादी द्वारा दोनों भी पक्षों के यामी पक्षविपक्षोंके या नित्यपनके अमित्यपनके कारण प्रमाणकी उपपत्ति हो जानेसे उपपत्तिसमा जाति दुई प्रतीत कर लेनी चाहिये । उभयोरपि पक्षयोः कारणस्योभयोपपत्तिा प्रस्थेया उभयकारणोपपत्तेरुपपत्तिसम इति वचनात् । ___ दोनों भी पक्ष विपक्षों के कारण की दोनों बादी प्रतिवादियों के यहां सिद्धि हो जाना उपपतिसमा जाति समझ लेनी चाहिये । न्यायदर्शनमें गौतम ऋषिने उभव कारणकी उपपत्तिसे उपपत्तिसम प्रतिषेध होता है, ऐसा निरूपण किया है। प्रतिवादी कह देता है कि जैसे तुझ वादीके पक्ष हो रहे अनित्यपनमें प्रमाण विधमान है, तिसी प्रकार मेरा पक्ष भी प्रमाणयुक्त है । ऐसी दशामें वादीके पक्षका प्रतिरोध हो जाना या बावित हो जाना सम्भव समझ कर प्रतिवादी उपपत्तिसमा जाति उठानेके लिये मुरू हुआ प्रतीत होता है। एकदाहरणमाह। इस उपपत्तिसमाके उदाहरणको न्यायभाष्य अनुसार श्री विद्यानन्द थाचार्य यों वक्ष्यमाण बार्तिकों द्वारा कहते हैं। कारणं यद्यनित्यत्वे प्रयत्नोत्थत्वमित्ययं । शवोऽनित्यस्तदा तस्य नित्यत्वेऽस्पर्शतास्ति तत् ॥ ४०९॥ 66

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