Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 561
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः का दोष दिखकानेके लिये प्रतिवादीने वादीके ऊपर जातिरूप प्रत्यवस्थान उठाया है, आचार्य कहते हैं कि एक विद्वान्का यह कहना भी युक्तिरहित है। क्योंकि इसमें बडे भारी अनर्थ हो जानेका संशय ( सम्भावना ) है । दूसरे प्रतिवादी द्वारा जातिका प्रयोग किये जानेपर यदि हेत्वाभास द्वारा अपने पक्ष की सिद्धि करनेवाला वादी अपने प्रयुक्त किये गये हेतुके दोषको देखता हुआ सभामें इस इस प्रकार कह देवे कि मेरे द्वारा प्रयुक्त किये गये हेतुमें यह विरोध, व्यभिचार, असिद्ध, आदि दोष है । वह दोष तो इस दूसरे प्रतिवादीने मेरे ऊपर नहीं उठाया है । किन्तु जाति उठा दी गयी है । ऐसी दशा में अनर्थ हो जानेका खटका है । प्रतिवादी जयके स्थान में पराजय प्राप्तिके लिये संशयापन हो जाता है । उस अवसरपर भी जातिको उठाने वाले प्रतिवादीकी जीत हो जाना प्रयोजन नहीं होगा। क्योंकि दोनों वादी प्रतिवादियोंके अज्ञानकी सिद्धि है । वादीको अपने पक्षकी सिद्धिके लिये समीचीन हेतुका ज्ञान नहीं है। और प्रतिवादीको दोष प्रयोग करनेका परिज्ञान नहीं है । ऐसी अज्ञान दशामें प्रविवादीको जय नहीं मिल सकता है । तथा वादी और प्रतिवादी दोनों समान गिने जांय, जैसे कि मल्लको गिरा देनेपर भी नहीं चित्त कर सकने वाले प्रतिमलको मल्लके समान मान लिया जाता है । इसी प्रकार मल्लप्रतिमल के समान दोनों वादी प्रतिवादियोंकी समानता हो जाना भी प्रयोजन नहीं सध पाता है । क्योंकि सभी प्रकारोंसे जयके असम्भव होनेपर उस साम्यको अभीष्ट किया गया है । एकान्तरूपसे पराजयका निर्णय हो जानेकी अपेक्षा पराजयका संदेह बना रहना कहीं बहुत अच्छा है । इस प्रकार अभियुक्तों का नीतिकथन चला आ रहा है । ५४९ यदा तु साधनाभासवादी स्वसाधनदोषं प्रच्छाद्य परप्रयुक्तां जातिमेवोद्भावयति तदापि न तस्य जयः प्रयोजनं साम्यं वा पराजयस्यैव तथा संभवात् । और जब हेत्वाभासको कहनेवाला वादी अपने हेतुके दोषको छिपाकर दूसरेसे प्रयुक्त की गयी जातिका ही उत्थापनकर देता है, तब भी तो उस वादीका जय होना अथवा दोनोंका समान बने रहना यह प्रयोजन नहीं सध पाता है । तिस प्रकार प्रयत्न करनेपर तो वादीका पराजय होना ही सम्भवता है । 1 अथ साधनदोषमनवबुध्यमानो जातिं प्रयुक्ते तदा निःप्रयोजनो जातिप्रयोगः स्यात् यत्किंचन वदतोपि तूष्णींभवतोपि वा साम्यं प्रातिभैव्र्व्यवस्थापनाद्वयोरज्ञानस्य निश्वयात् । पूर्व में उठाये गये द्वितीय विकल्प अनुसार दूसरे विद्वान् अब यदि यों कहें कि वादीद्वारा प्रयुक्त किये गये हेतुके दोषको नहीं समझ रहा संता प्रतिवादी वादीके ऊपर जातिका प्रयोग कर रहा है, तब तो हम कहेंगे कि ऐसी दशा में जाति के प्रयोग करनेका कोई प्रयोजन नहीं है । प्रतिमा बुद्धिको धारनेवाले विद्वानों करके जो कुछ भी मनमानी कह रहे भी अथवा चुप होकर बैठ

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