Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थ कोकवार्तिके
खिच्चरके समान सांकर्य दोष यहां संभवनीय नहीं है। प्रतीयमान हो रहे पदार्थमें यदि सांकर्य हो भी जाय तो वह दोष नहीं माना जाकर गुण ही समझा जायगा। एक हाथकी पांच अंगुलियोंमें छोटापन बढापन कोई दोष नहीं है । जब कि वह एकका छोटापन दूसरीका बडापन आंखोंमें बडामारी दोष समझा जाता है । दोष भी क्वचित् गुण हो जाते हैं । पांचोंका अधिक बडा होना दोष है । सिरका समुचित बडापना कोकमें गुण माना गया है। बात यह है, एक बारमा धर्नामें कर्चापन, मोक्कापन, मरमा, जन्म लेना, हिंसकपना, दातापन, एक विषयोंका ज्ञातापन, अन्य विषयका अज्ञान बादिक अनेक धर्म असंकीर्ण होकर ठहर रहे हैं। वस्तुका धर्मोके साथ कथंचिद् भेद, अमेद, माननेपर कथमपि सांकर्य दोषकी सम्मावना नहीं है । एक ही समयमें घटका नाश मुकुटका उत्पाद और सुवर्णकी स्थिति ये तीनों उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य तदात्मक होकर वस्तुमें प्रतीत होते हैं। तथा छट्ठा दोष व्यतिकर भी अनेकान्तमें नहीं प्राप्त होता है । भिन्न भिन्न धर्मोंके अवच्छेदक स्वरूप स्वभाव इस वस्तुमें न्यारे न्यारे नियत हैं । एक देवदत्तमें नाना व्यक्तियोंकी अपेक्षा पितापन, भ्रातापन, भतीजापन, भानजापन आदिक धर्म व्यतिकररहित प्रतीत हो रहे हैं । महारोगीको एक रसायन उचित मात्रामें दी गयी नीरोग कर सकती है। वही रसायन यदि नीरोग पुरुषके उपयोगमें आ जाय तो उष्णताको बढाकर उस पुरुषके प्राण ले सकती है । विशेष विष किसीको मारनेकी शक्ति रखता है । साथ ही वह चिर कुष्ठरोगको दूर भी कर सकता है । हारमें जडे हुये न्यारे न्यारे रत्नोंके समान अनेक धर्म भी देश, काका भेद नहीं रखते हुये वस्तुमें अक्षुण्ण विराज रहे हैं तथा अनवस्था दोष होनेका भी प्रसंग नहीं है। क्योंकि हम जैन एक धर्मीको अनेक धर्म आत्मक स्वीकार करते हैं । पुनः धर्मोमेंसे एक एक धर्मको अनेक धर्मात्मक नहीं मानते हैं । धर्मोमें अन्य धर्मोका सद्भाव नहीं है । वृक्षों शाखायें पुष्प फल हैं। शाखाओं में दूसरी वैसे ही शाखायें या फलों में दूसरे फल तथा फलोंमें दूसरे फळ वर्त रहे नहीं माने गये है। एक शानमें वेष वेदक और वित्ति तीन अंश हैं । उन उन एक एक अंशमें पुनः तीन तीन अंश नहीं है । जिससे कि अनवस्था हो सके । वस्तु अमिन ही है । धर्म न्यारे ग्यारे ही , ऐसी दशामें अनवस्था प्राप्त नहीं होती है। शरीरमें अवस्थित रहना हड्डीका गुण है । और अनवस्थित रहना अस्थिका दोष है। किन्तु रक्तका अवस्थित रहना दोष है । अनवस्था गुण है । बीज, अंकुर, मुर्गी, अण्डा, आदिकी धाराके समान कचित् अनवस्था गुण भी हो जाता है । "मूलक्षतिकरीमाहुरनवस्थां हि दूषणं" जड मूलको नष्ट करनेवाली अनवस्था दूषण है । वस्तुके अनादि अनन्तपनको या अनेकान्तपनको पुष्ट कर रही अनवस्था तो भूषण है। धर्मोमें पुनः धर्म और उनमें भी पुनः तीसरे धर्म माननेपर अनवस्था हो सकती थी । अन्यथा नहीं। अप्रतिपत्ति और अमाव दोष तो कथमपि नहीं सम्भवते हैं । जब कि सम्पूर्ण प्राणियोंको विधमान अनेक धर्मात्मक एक अर्थका स्पष्ट अनुभव हो रहा है । जगत्में अनेकान्तात्मक वस्तुका दर्शन इतन,