Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 567
________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः करना सुलभ हो गया है, जितना कि अपने हाथमें पांचों अंगुलियों का दीखना है । अतः अनेकान्त में दोष उठाना अपनी विचारशालिनी बुद्धिमें दूषण लगाना है। इन आठ, नौ, प्रत्यवस्थानोंके अतिरिक्त भी चक्रक अन्योन्याश्रय आदि इच्छानुसार दोषों करके भी अनेकान्तमें प्रतिषेध उठाना " मिथ्या उत्तर " होता हुआ जाति समझा जायगा । वस्तुतः इन दोषों करके अनेकान्तमें बाधा प्राप्त नहीं हो सकती है । " स्वस्मिन् स्त्रापेक्षत्वमात्माश्रयत्वं " स्वयं अपने लिये अपनी अपेक्षा बने रहना आत्माश्रय है । परस्परमें धारावाही रूपसे एक दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है । पुनः पुनः घूमकर वही आजाना चक्रक है। अपने आत्मलाभ में स्वयं अपने आप व्यापार " स्वात्मनि क्रियाविरोध " है । इत्यादिक कोई भी दोष अनेकान्तमें नहीं प्राप्त होते हैं । यदि कथंचित् कोई दोष प्राप्त भी हो जाय तो वह गुणस्वरूप हो जायगा । वस्तुमें द्रव्यत्व धर्मकी व्यवस्था कभी अस्तित्व स्वभावकी अपेक्षा से करते हैं, और किसी दार्शनिक के प्रति अस्तित्व करके द्रव्यत्व समझाया जाता है । दोनोंमेंसे जिस एकको जो समझे हुये हैं, जाने हुये उससे दूसरे अज्ञात बर्मकी ज्ञप्ति करा दी जाती है । अस्तित्व, द्रव्यत्व दोनों धर्मोंको नहीं जानने वाले पुरुषके लिये वस्तुत्व हेतु का प्रयोग कर दोनों धर्मोकी प्रतीति करा दी जाती है । इस ढंगसे ज्ञापक पक्षमें कोई अन्योन्याश्रय नहीं है । हम जैन वस्तुके एक गुणसे दूसरे गुणकी उत्पत्ति होना स्वीकार नहीं करते हैं । जिससे कि कारक पक्षमें अन्योन्याश्रय दोष सम्भव हो सके । किन्हीं किन्हीं वस्तु के स्वभावको मियत करनेके लिये यदि अन्योन्याश्रय हो भी जाय तो भी कोई अनिष्टापत्ति, नहीं है । जो पुरुष वस्तुमें दोष देनेके लिये बैठ जाते हैं, उनको यह भी विचारना चाहिये कि दोषों में भी अनेक दोष प्राप्त हो जाते हैं । अतः कचित् वे गुणका रूप धारण कर लेते हैं। देखिये ! अपनी मोक्ष अपने आप प्रयत्न करने से होती है। समाचार पत्रों में विज्ञापन देनेवाले सचे नहीं होते हैं, इस बातको विज्ञापन देकर समझानेसे आ रहा आत्माश्रय दोष अकिंचित्कर है । अन्योन्याश्रय दोषकी भी यही दशा है । दो लडकी एक दूसरे के अधीन होकर तिरछीं खड़ीं रहती हैं। सौडमें गर्मी शरीरकी गर्मी के अधीन है । और शरीर की गर्मी सोडकी उष्णताके अधीन है । पतिपत्नी सम्बन्धमें स्वामीकी कथंचित् स्वामिनी स्त्री हो जाती है। माताका दुग्ध बढाना वत्सके आधीन है। और बच्चे की वृद्धि मातृदुग्ध के अधीन है। रस्तेपर खडा हुआ नट वांसके अधीन है। और वांस नटके अधीन है । रातको अकेले rha किसी स्थानपर जानेसे छात्रोंको डर लगता है । दोनोंको साथ जानेपर नहीं भय रहता है । यो अन्योन्याश्रय हो रहे कार्य दोषवान् कहने योग्य नहीं है । तथा आकाश स्वयंको अवकाश देता है । प्रदीप स्वयंको प्रकाशता है, ज्ञान आप ही स्वयंको जानता है । निश्चय नयसे सम्पूर्ण पदार्थ अपने में अपना परिणमन करते हैं। यहां स्वात्मनि क्रियाविरोध कोई दोषास्पद नहीं है । प्रायः सभी गृहस्थ सहोदर भगिनीका विवाह हो जानेपर किसी न किसीके साठे बन जातें हैं । इसमें दोषकी कौनसी बात है । अतः जैनोंके अनेकान्तमें उक्त दोष उठाना मिथ्या उत्तर है । ५५५

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