Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
तत्त्वार्थचिन्तामणिः
परोक्तं पुनरव्या प्रोक्तेष्वेतेष्वसंभवात् ।
ततो न निग्रहस्थानं युक्तमेतदिति स्थितम् ॥ ७६१॥
दूसरे नैयायिक विद्वानों करके कहा गया जातिका लक्षण तो फिर अव्याप्ति दोष युक्त है। क्योंकि मळे प्रकार कह दिये गये इन साकर्य, व्यतिकर, आदि द्वारा दिये गये प्रत्यवस्थानों में लक्षण घटना होनेका असंभव है। तिस कारणसे अबतक यह व्यवस्तित हुआ कि तिस जातिका उत्थापन करनेसे निग्रहस्थान देना उचित नहीं है। स्वपक्षसिद्धि और परपक्षनिराकरणसे ही दूसरेका निग्रह होना न्यायसंगत है । जो कि पहिले प्रकरणोंमें सिद्ध कर दिया गया है।
परोक्तं पुनर्जातिसामान्यलक्षणमयुक्तमेव, संकव्यतिकरविरोधानवस्थावैयधिकरण्योभयदोषसंशयाप्रतीत्यभावादिभिः प्रत्यवस्थानेषु तस्यासंभवात् । ततोन निग्रहस्थानमेतयुक्तं तारिखके बादे, प्रतिज्ञाहान्यादिवच्छलवदसाधनांगदोषोद्भावनवच्चेति ।
दूसरे नैयायिकों द्वारा कहा गया जातिका लक्षण तो फिर अव्याप्तिदोष युक्त होनेसे अनु. चित ही है। क्योंकि भळे प्रकार कह दिये गये संकर, व्यतिकर, विरोध, अनवस्था, वैयधिकरण्य, उमय, दोष, संशय, अप्रतिपत्ति, अमाव, सर्वका एकास्वापादन आदि करके उठाये गये प्रत्यवस्थानों में जातिके उस लक्षणकी घटनाका असंभव है। तिस कारण तस्वोंका निर्णय करानेवाले वादमें उक्त प्रकारोंकी जाति द्वारा निग्रहस्थान हुआ, यह मानना समुचित नहीं है। जैसे कि प्रतिज्ञाहानि, प्रतिशान्तर बादि करके निग्रहस्थान उठाना युक्त नहीं है । अथवा वाक्छल, सामान्यछल, उपचारछल इन छोंका उत्थान कर देनेसे किसीका निग्रह नहीं हो जाता है । तथा बौद्ध मत अनुसार साध्य साधक अंगोंका कथन नहीं करना वादीका और दोषोंका नहीं उठाना प्रतिवादीका निग्रहस्थान नहीं हो जाता है। प्रतिमाहानि आदि और छल तथा असाधनांग वचन, अदोषोद्भावन, इन तीन दृष्टान्तोसे जाति द्वारा निग्रह हो जानेका खण्डन कर दिया गया है। " स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोs भ्यस्य वादिनः " परपक्ष निराकरण पूर्वक स्वपक्षको साध देना ही सभ्य पुरुषोंमें दूसरेका निग्रह हो जाना माना जाता है । यहांतक " असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः न युक्तं निग्रहस्थानं संधाहान्यादिवत्ततः " इस पूर्वमें कही जा चुकी कारिकाका उपसंहार कर दिया गया है।
तथा च तात्त्विको वादः स्वेष्टसिध्यवसानभाक् । पक्षेयत्वात्वयुक्तैव नियमानुपपत्तितः ॥ ४६२ ॥
बोर तिस प्रकार व्यवस्था करनेपर तत्वोंको विषय करनेवाला वाद अपने अभीष्ट सिद्धिके पर्यन्तको धारनेवाला है । जगत्में अनेक वादी प्रतिवादियों के विवादापन्न हो रहे पक्ष असंख्य हैं।