Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 563
________________ तत्वार्धचिन्तामणिः 1 जिस प्रकार कि जैन सिद्धान्तीद्वारा सत्वहेतु करके सम्पूर्ण पदार्थोंमें अनेकान्त आत्मकपनेका साधन कर चुकने पर प्रतिवादीद्वारा सांकर्यसे प्रत्यवस्थान उठाया जाना तथा व्यतिकरपन से दूषणाभास उठाया जाना जाति है । विरोध करके, अनवस्था करके, विभिन्न अधिकरणपने करके, उभय दोष करके, संशय करके, अप्रतीति करके तथा अभावदोष करके प्रसंग उठाना भी जाति मानी गयी है, अथवा और भी अपनी इच्छा अनुसार दूसरे प्रकारोंसे चक्रक, अन्योन्याश्रम, आत्माश्रय, व्याघात, श्याकत्व, अतिप्रसंग आदि करके प्रतिषेधरूप उपालम्भ देना भी जातियां हैं । वास्तविक रूपसे विचारा जाय तो प्रत्यक्षप्रमाण, अनुमानप्रमाण, आगमप्रमाण से अनेक धर्मो के साथ तदात्मक हो री वस्तुकी सिद्धि बाळगोपाळांतकमें हो रही है । अतः तिस प्रकारके सांकर्य आदि दोषों ( दोषामा) करके इस अक्षुण्ण अनेकान्तकी सिद्धिका प्रतिघात नहीं हो पाता है । तिस कारण से हमारे जैन सिद्धान्तमें स्वीकार किया गया मिथ्या उत्तरपना ही जातिका निर्दोष लक्षण सिद्ध हुआ । इनका विवरण यों है कि अनेकान्तवादी जैन विद्वानोंके ऊपर एकान्तवादी नैयायिक आदिक पण्डित आठ दोषों को उठाते हैं । १ संशय २ विरोध ३ वैयधिकरण्य ४ उभय ५ संकर ६ व्यतिकर ७ अनवस्था ८ अप्रतिपत्तिपूर्वक अभाव, ये आठ दोष हैं । वैयाधिकरण्यमें अन्तभाव करते हुये कोई कोई उभयको दोषोंमें स्वतंत्र नहीं गिनाकर अप्रतिपत्ति और अभावको दोष गिन लेते हैं । "" १ मेदामेदात्मक सदसदात्मकत्वा वस्तुनोऽसाधारणाकारेण निश्चेतुमशक्यत्वं संशयः चतिप्रतिपत्तिर्वा " २ " शीतोष्णस्पर्शयोरिव विधिनिषेधयोरेकत्र वस्तुन्यसंभवो विरोधः " ३ "युगपदन कत्रावस्थितिर्वैयधि करण्यम् " भिन्नाधेयानां नानाधिकरणप्रसंगो वा ४ " मिथो विरुद्धानां तदीयस्वभावाभावापादनमुमय दोषः " सर्वेषां युगपत्प्राप्तिः संकरः " अथवा परस्परात्यन्ताभावसमानाधिकरणयोर्धर्मयेोरेकत्र समावेशः संकरः " ६" परस्परविषयगमनं व्यतिकरः " ७ " उत्तरोत्तरधर्मापेक्षा विश्रामाभावोsनवस्था " ८ अनुपलम्भोऽप्रतिपत्तिः " ९ "सद्भावे दोषप्रसक्तेः सिद्धिविरहान्नास्तित्वापादनमभावः " सम्पूर्ण पदार्थोंको अस्ति नास्तिरूप या भेद अमेद आत्मक स्वीकार करनेपर जैनोंके ऊपर नैयायिक संशय आदिक दोषोंको यों उठाते हैं कि किस स्वरूपसे अस्तिपन कहा जाय ? और किस तदात्मक रूपसे नास्तिपन कहा जाय ? वस्तुका असाधारण स्वरूप करके निश्चय नहीं किया जा सकता है । अतः अनेकान्तवाद में संशय दोष आता है। तथा जहां वस्तुमें अस्तित्व है, वहां नास्तित्वका विरोध है और जहां नास्तित्व है, वहां अस्तित्वका विरोध है, शीत स्पर्श और उष्णस्पर्शके समान दो विरुद्ध अस्तित्व, नास्तित्व, धर्मोका एक वस्तुमें एक साथ अवस्थान नहीं हो सकता है । अतः अनेकान्तमें विरोधदोष खडा हुआ है । तथा अस्तित्वका अधिकरण न्यारा होना चाहिये और उसके प्रतिकूल नास्तित्वका अधिकरण न्यारा होना चाहिये । एक वस्तुमें एक साथ दो विरुद्ध धर्मोके स्वीकार करनेसे अनेकान्तवादियों के ऊपर यह वैयधिकरण्य दोष हुआ । तथा एकान्तरूपसे अस्तित्व माननेपर जो दोष नास्तित्वाभासरूप आता है, अथवा "" ५ 33 ५५१

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