Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 560
________________ ५४८ तत्वार्थश्लोकवार्तिके mmmmmmmmmmmmm रज्ञानसिद्धः। नापि साम्यं प्रयोजनं सर्वथा जयस्यासंभवे तस्याभिमेतत्वादेकांवपराजयादरं सन्देह इति वचनात् । यहां कोई एक पण्डित कह रहे हैं कि तिस प्रकार हमको अभीष्ट हो जानेसे कोई दोष नहीं भाता है । अर्थात्-हेत्वाभासके प्रयोगमें भी साधर्म्य और वैधर्म्य द्वारा प्रत्यवस्थानरूप जातिपना इष्ट है । " उपधेयसंकरेऽपि उपाधेरसकरात् " उपधियुक्त धीके एक होनेपर भी कई उपाधियां वहां असंकीर्ण होकर ठहर सकती हैं । एक महा दुष्ट पुरुष अनेक झूठ, हिंसा, व्यभिचार, कृतघ्नता सुरासेवन आदि न्यारे न्यारे दोषोंका आश्रय हो जाता है । एक अति सज्जन पुरुषमें अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्यव्रत, कृतन्त्रता, स्वार्थत्याग आदि अनेक गुण युगपत् विराजमान हो सकते हैं । हेत्वाभासका प्रयोग करनेपर भी निग्रहस्थानपना, जातिपना या अनुमिति और उसके कारण इनमें से किसी एकका विरोधीपना ये दोष एकत्रित अभीष्ट हैं । इस प्रकार कोई एक विद्वान् कह रहे हैं। उन्होंने अपने मन्तव्यका समर्थन इस ढंगसे प्रसिद्ध किया है । सो सुनिये। असमीचीन हेतु यानी हेत्वामासके प्रयोग किये जा चुकनेपर जो जातियोंका प्रयोग किया गया है, वह हेतु के दोषोंकी अनभिज्ञतासे किया गया है। अतः जातियोंका प्रयोग करना हेतुका दोष समझा जायगा अथवा प्रसंगके छल (बहाना) करके उस हेतुके दोषका प्रदर्शन करने के लिये जातियों का प्रयोग किया गया है ! दोनों ढंगों से जातियोंका प्रयोग होना सम्भव जाता है । पहिला मार्ग अज्ञतापूर्ण है और दूसरा मार्ग चातुर्यपूर्ण है। यहांतक एक विद्वान्के कह चुकनेपर आचार्य महाराज कहते हैं कि एक विद्वान्का वह कहना मी अयुक्त है। क्योंकि उद्योतकर पण्डितने हेत्वाभासके प्रयोग कर चुकनेपर पुनः उसके ऊपर जातिके प्रयोग करनेका निराकरण कर दिया है। अर्थत्-हेत्वाभासको कहनेवाले वादीके ऊपर प्रतिवादीद्वारा हेत्वाभास दोष अठा चुकने पर पुनः असत् उत्तररूप जातिका उठाना निषिद्ध कर दिया है। जो मूर्खवादी अपने पक्षकी छिद्धिको समीचीन तुसे नहीं करता हुआ असमीचीन हेतुसे कर रहा है, उस वादीका खण्डन प्रतिवादीकर के विषप्रयोगसमान हेत्वाभास प्रयोगके उठा देनेसे ही हो जाता है । पुनः उसके ऊपर थप्पड, मारना चूंपा मारना आदिके समान जाति उठाना उचित नहीं है । इम पूंछते हैं कि जातिको उठानेवाला प्रतिवादी क्या वादीके हेतुको यह त्वामास रूप है, इस प्रकार मियमसे समझता है । अथवा क्या वादीके हेतुको हेत्वाभास नहीं समझता है ! बतायो । प्रथम विकल्प अनुसार प्रतिवादी यदि षादीके प्रयुक्त तुको दोष इस प्रतिवादीने समझारे. पा हेत्वाभास ही इसको उठाकर कहना चहिये । जातिका प्रयोग तो नहीं करना चाहिये । कारण कि जातिके प्रयोग करनेका कोई विशेष प्रयोजन नहीं है। जब प्रतिवादी हेत्वाभासको उठाकर ही जय छाम कर सकता है, तो जघन्य पंडितोंके प्रयोग व्यवहार में आ रही जातिका प्रयोग क्यों व्यर्थ करेगा, दूसरे चातुर्यपूर्ण मार्ग अनुसार यदि यहां कोई विद्वन् यों कहे कि प्रसंग के छ करके हेतु

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