Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिके
साधनाप्रयोगेपि तज्जातित्वप्रसंगतः । दूषणाभासरूपस्य जातित्वेन प्रकीर्तने ॥ ४५५ ॥ अस्तु मिथ्योत्तरं जातिरकलंकोक्तलक्षणा । साधनाभासवादे च जयस्यासम्भवाद्वरे ॥ ४५६ ॥
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नैयायिकोंने वीतराग पुरुषों की कथा ( सम्भाषण ) को वाद स्वीकार किया है । उस वाद में प्रमाण और तर्क से साधन और उठाइने दिये जाते हैं। हां, जल्प और वितंडारूप भाषण में जातियोंका प्रयोग किया जाता है । अत: परस्पर में जीतने की इच्छासे प्रवर्त रहे वादी प्रतिवादियों के जल्प और वितण्डा नामक शास्त्रार्थमें उक्त जातियां निग्रह ( पराजय ) कराने के लिये समर्थ हो रही मानी गयीं हैं । इस प्रकार नैयायिक भले प्रकार स्वकीय सिद्धान्तको वखान रहे हैं । आचार्य कहते हैं कि उसमें इमको यह कहना है कि " साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां प्रत्यवस्थानं जातिः " साधर्म्य और उससे इतर वैधर्म्य करके उलाहना देना प्रतिषेध उठाना यह प्रत्यवस्थान जो जातिका सामान्य लक्षण कहा गया है, सो यह तो दुर्घट है। यानी अव्याप्ति, अतिव्याप्ति दोषोंसे रहित हो कर यह लक्षण अपने लक्ष्यों में नहीं घटित होता है। देखिये, इस लक्षणके अनुसार हेत्वाभासका प्रयोग करने में भी वादीको उस जातिपनेका प्रसंग हो जावेगा । वहां भी साधर्म्य और वैधर्म्य करके प्रत्यवस्थान उठाया गया है । अतः जातिके लक्षण करनेमें अतिव्याप्ति दोष आया । नैयायिकोंने हेत्वाभासको सोलह मूळ पदार्थों में गिनाया है । निग्रहस्थानों में भी हेत्वाभासका पाठ है । अतः वे जातिका लक्षण करते समय अक्ष्य हैं । अलक्ष्य में लक्षणका चला जाना अतिव्याप्ति है । यदि तुम नैयायिक जातिका दूसरा निर्दोष लक्षण दूषणाभास रूप कथन करोगे तो हेत्वाभासमें पूर्व कथित कक्षण के वर्त जानेसे आयी दुई अतिव्याप्तिका अब निवारण हो जायगा । क्योंकि हेत्वाभास तो समीचीन दूषण हैं । वस्तुतः दूषण नहीं होते हुये दूषणसदृश दीखनेवाले दूषणाभास नहीं है । अतः इस लक्षण में अतिव्याप्ति नहीं है । फिर भी इस क्षण में अव्याप्ति दोष आ जावेगा । जिसको कि अमग्रन्थ में स्पष्ट कर देवेंगे। हां, " मिथ्योत्तरं जातिः " मिथ्या उत्तर देना ही जाती है, यह श्री अकलंक देवकरके कहा गया जातिका लक्षण निर्दोष होकर श्रेष्ठ मान लिया जाओ । चूंकि वादी द्वारा स्वपक्षसिद्धिके लिये हेत्वाभासका कथन करनेपर तो वादीको जयप्राप्ति होना असम्भव है । अतः नैयायिकों का मन्तव्य समीचीन नहीं जचता है 1
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ग्रन्थकार स्वयं अभी
युक्तं तावदिह यदनंता जातय इति वचनं तथेष्टत्वादसदुत्तराणामानंत्यप्रसिद्धेः । संक्षेपतस्तु विशेषतस्तु विशेषेण चतुर्विंशतिरित्ययुक्तं, जात्यंतराणामपि भावात् । तेषामास्वेषांतर्भावाददोष इति चेत् न, जातिसामान्यलक्षणस्य तत्र दुर्घटत्वात् । साधर्म्य वैधर्म्याभ्यां